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कम्युनिस्ट आंदोलन बिखराव से भटकाव तक

कम्युनिस्ट आंदोलन बिखराव से भटकाव तक

11 अप्रैल का दिन भारत के कम्युनिष्ट आंदोलन के इतिहास में काले दिन के रूप में याद किया जाता है।
क्योंकि इसी दिन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी दो हिस्सों में विभाजित हो गई थी। मुख्य पार्टी को भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी कहा जाता है और विभाजित हुई दूसरी पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) रखा
गया। दोनों ही पार्टियों ने अपना दमखम बनाये रखने के लिए बहुत संघर्ष किया मगर आखिर में जाकर
दोनों ताश के महल की तरह बिखर गए।
जेएनयू आंदोलन और खबरिया चैनलों पर कम्युनिष्टों की दहाड़ देखकर यह भ्रम होना स्वाभाविक है की
वामपंथी ताकतें अभी वजूद में है। हालाँकि यह एक सपना सा लगता है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में
जनता द्वारा नकार देने के बाद संसद में इनकी संख्या पांच पर आकर सिमट गयी है। खबरिया चैनलों की
बहस में यदा कदा कम्युनिष्ट नेता आ जाते है। उनकी बातों को सुनकर हंसी भी आती है और दुःख भी होता
है। एक आंदोलनकारी पार्टी का यह हश्र देखकर दुनिया चकित है। प्रेस से वार्ता के दौरान कम्युनिष्ट नेता
यह दर्शाते है जैसे देशवासियों का भारी समर्थन इनके कन्धों पर है। कभी मजदूर आंदोलन का सिरमौर रही
इन पार्टियों का समर्थन यहाँ से भी दरक गया।
भारत से कम्युनिष्ट आंदोलन की विदाई दुखद और कष्टकारक है। आजादी के बाद कम्युनिष्ट दो भागों में
बंट गए थे। एक स्थिति ऐसी भी आयी कि कम्युनिष्टों को प्रधान मंत्री का पद भी प्रस्तावित किया गया था।
हालाँकि बाद में देश के गृह मंत्री और लोकसभा अध्यक्ष का पद उन्होंने ग्रहण किया था। पिछले तीन
लोकसभा चुनावों में निरंतर ह्रास के बाद वामपंथी हासिये पर आ गए। कम्युनिस्टों की कभी भारत में तूती
बोलती थी। हालाँकि कम्युनिस्ट बंगाल,त्रिपुरा और केरल से आगे कभी नहीं बढे। मगर मेहनतकश वर्ग के
लिए लड़ी गई उनकी लड़ाई इतिहास में अमिट रहेगी। साठ और सत्तर के दशक में कम्युनिस्टों ने अपने बाड़े
से निकलकर आंध्रा ,तमिलनाडु, ओडिसा सहित उत्तर भारत के बिहार, महाराष्ट्र ,राजस्थान मध्य प्रदेश, यू
पी ,असम और पंजाब आदि राज्यों में अपने संघर्ष के बूते अपनी पहचान बनाई। मगर शीघ्र कम्युनिस्ट बंट
गए और खंड खंड होने के बाद उनकी ताकत लगातार घटती गई। कभी संसद में 64 का आंकड़ा पार करने
वाले कम्युनिस्ट आज 5 तक पहुँच गए।
देश के गरीब, मजदूर और मेहनतकश वर्गों की लड़ाई में अगुवा रहने वाली वामपंथी पार्टियां लगता है अब
अंतिम सांसे ले रही है। कभी 64 लोकसभा सीटों के साथ देश के तीन राज्यों में सत्तासीन और भारत सरकार
के निर्माण में अहम् भूमिका निभाने वाली वामपंथी पार्टियां आज सिर्फ पांच सीटों तक सिमट कर रह गयी

है। त्रिपुरा और बंगाल के गढ़ तो पहले ही ढह गए थे अब केरल बचा है जहाँ वह शासन में है। पांच में से चार
लोकसभा सीटें तमिलनाडु में डीएमके की कृपा से मिले है। कम्युनस्टों के लिए यह अभी तक के सबसे खराब
हालात हैं। लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को 2 और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया
(मार्क्सिस्ट) को 3 सीटें मिली हैं।
भारत के तीसरे आम चुनाव में भाकपा को 29 सीटों पर जीत मिली। 1964 में भाकपा का विभाजन हो गया
और एक नयी पार्टी माकपा का उदय हुआ। भाकपा के जुझारू नेता नम्बूदरीपाद, ज्योति बसु, ए के गोपालन
ज्योतिर्मय बसु, सोमनाथ चटर्जी और हरकिशन सिंह सुरजीत आदि माकपा में शामिल हो गये। 1977 के
बाद भाकपा ने माकपा और दूसरी छोटी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ मिलकर वाम मोर्चे का गठन किया।
व्यावहारिक तौर पर केरल सहित अधिकांश जगहों पर यह पार्टी माकपा के एक छोटे सहयोगी दल में बदल
गयी। 1996 के लोकसभा चुनावों के बाद किसी दल को बहुमत नहीं मिला। सबसे बड़ी पार्टी भाजपा की
सरकार लोकसभा में अपना बहुमत साबित नहीं कर पायी। इसके बाद एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त
मोर्चे की सरकार बनी। भाकपा ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए इस सरकार में शामिल होने का फैसला
किया। यह फैसला माकपा के फैसले से काफी अलग था जिसने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव
ठुकरा दिया था। इस तरह वाम मोर्चे का भाग होते हुए भी इसने अपनी राजनीतिक स्वायत्ता प्रदर्शित की।
संयुक्त मोर्चे की दोनों सरकारों (एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल) की सरकार में इसके नेता शामिल
हुए और उन्होंने गृह मंत्रालय (इंद्रजीत गुप्त) और कृषि मंत्रालय (चतुरानन मिश्र) जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालय
सम्भाले।

- बाल मुकुन्द ओझा

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