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डिजिटल क्रांति: विचार अब प्रदर्शन नहीं, प्रस्तुतियाँ बन गए हैं

डिजिटल क्रांति: विचार अब प्रदर्शन नहीं, प्रस्तुतियाँ बन गए हैं

आज का भारत एक ऐसी धरती है, जहाँ क्रांति का रंग बदल चुका है। पहले जहाँ सड़कों पर नारे, धरने और अनशन व्यवस्था को चुनौती देते थे, वहीं अब स्मार्टफोन की स्क्रीन पर रील्स ने वह जगह ले ली है। एक मिनट की वीडियो, जिसमें हल्का-सा मज़ाक, थोड़ा-सा गुस्सा और ढेर सारा ड्रामा हो, लाखों लोगों तक पहुँचकर तहलका मचा देती है। सोशल मीडिया, खासकर रील्स, ने हर किसी को अपनी बात कहने का मंच दे दिया है। लेकिन इसी मंच ने एक अजीब-सी विडंबना को जन्म दिया है—रील्स से क्रांति ट्रेंड करती है, मगर रीयल में सवाल उठाने वाले को जेल की सैर करनी पड़ती है। यह विरोधाभास हमारे समाज, हमारी व्यवस्था और हमारे समय की सच्चाई को उजागर करता है।

सोशल मीडिया ने क्रांति को लोकतांत्रिक बना दिया है। अब न तो किसी बड़े संगठन की ज़रूरत है, न विचारधारा की गहरी समझ की, और न ही लंबे भाषणों की। बस एक स्मार्टफोन, थोड़ा-सा अभिनय और एक ट्रेंडिंग ऑडियो ही काफी है। एक नौजवान, जो कभी मंचों तक नहीं पहुँच पाता था, आज अपनी रील्स के ज़रिए लाखों लोगों तक अपनी बात पहुँचा सकता है। शिक्षा, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा या सामाजिक अन्याय जैसे गंभीर मुद्दों को वह मज़ेदार डायलॉग, इमोशनल बैकग्राउंड म्यूज़िक और कैची कैप्शन के साथ पेश करता है। नतीजा? उसकी बात वायरल होती है, लोग तारीफ करते हैं, और वह रातोंरात स्टार बन जाता है। लेकिन यही बात अगर कोई सड़क पर उतरकर, पोस्टर लेकर या नारे लगाकर कहे, तो उसे पुलिस का डंडा, एफआईआर, या जेल का रास्ता दिखाया जाता है। आंकड़े इस विडंबना को और स्पष्ट करते हैं—2023 में भारत में विभिन्न विरोध प्रदर्शनों के दौरान लगभग 3,000 लोग गिरफ्तार किए गए, जिनमें से कई शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी थे (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो, 2023)। दूसरी ओर, उसी साल इंस्टाग्राम पर सामाजिक मुद्दों से जुड़ी रील्स को अरबों बार देखा गया, और उनमें से ज़्यादातर बिना किसी कानूनी कार्रवाई के ट्रेंड करती रहीं।

यह अंतर सिर्फ़ माध्यम का नहीं, बल्कि समाज की मानसिकता का भी है। रील्स में मुद्दों को "पैकेज" किया जाता है। एक मिनट की क्लिप में हल्का-सा हास्य, थोड़ा-सा गुस्सा और ढेर सारी नाटकीयता डालकर उसे मनोरंजन का रूप दे दिया जाता है। लोग उसे देखते हैं, लाइक करते हैं, शेयर करते हैं, और फिर भूल जाते हैं। लेकिन जब वही मुद्दा सड़क पर, संसद के सामने या किसी धरने में उठाया जाता है, तो वह व्यवस्था के लिए खतरा बन जाता है। सवाल उठाने वाले को "देशद्रोही," "अराजकतावादी," या किसी विचारधारा का एजेंट करार दे दिया जाता है। उदाहरण के लिए, 2020-21 के किसान आंदोलन में लाखों लोग सड़कों पर उतरे, लेकिन उनकी आवाज़ को दबाने के लिए न केवल बल प्रयोग किया गया, बल्कि 700 से ज़्यादा किसानों की जान गई (इंडियन एक्सप्रेस, 2021)। वहीं, सोशल मीडिया पर किसानों के समर्थन में बनी रील्स को करोड़ों व्यूज़ मिले, और उनके क्रिएटर्स को ब्रांड डील्स तक ऑफर हुए। यहाँ सवाल यह है कि क्या रील्स वास्तव में क्रांति ला रही हैं, या सिर्फ़ मनोरंजन का नया रूप बन रही हैं?

रील्स की ताकत को नज़रअंदाज़ करना असंभव है। इसने हर आम इंसान को अपनी आवाज़ बुलंद करने का मंच दिया। 2024 तक भारत में इंस्टाग्राम के 50 करोड़ से अधिक यूज़र्स थे, जिनमें 70% से ज़्यादा 18-34 आयु वर्ग के युवा थे (स्टेटिस्टा, 2024)। इन युवाओं ने रील्स को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का ज़ोरदार हथियार बनाया। चाहे सामाजिक न्याय की माँग हो, वैश्विक आंदोलनों का भारतीय स्वरूप हो, या स्थानीय मुद्दों पर जागरूकता—रील्स ने हर आवाज़ को दुनिया तक पहुँचाया। मगर यही ताकत इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। जब गंभीर मुद्दे स्क्रिप्टेड ड्रामे में बदल जाते हैं, तो उनका असली मकसद फीका पड़ जाता है। रील्स में दिखने वाला गुस्सा या दर्द अक्सर सतही होता है, जो लाइक्स और शेयर्स की चमक तक सीमित रहता है। सच्चा बदलाव चाहिए तो जोखिम, मेहनत और समर्पण चाहिए, जो रील्स की चकाचौंध में कहीं खो जाता है।

दूसरी ओर, जो लोग ज़मीन पर संघर्ष करते हैं—चाहे वह किसान हों, दलित अधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता हों, या आदिवासी अपनी ज़मीन बचाने की जंग लड़ रहे हों—उन्हें सत्ता की सख्ती का सामना करना पड़ता है। 2022 में, भारत में 1,000 से ज़्यादा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामले दर्ज किए गए (ह्यूमन राइट्स वॉच, 2023)। इनमें से कई लोग केवल इसलिए निशाने पर आए क्योंकि उन्होंने व्यवस्था से सवाल पूछे। यह विडंबना है कि जहाँ एक रील क्रिएटर अपनी बात को मज़ाक में लपेटकर बिना डर के लाखों तक पहुँचाता है, वहीं एक कार्यकर्ता को वही बात कहने के लिए जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ता है।

यह कहना गलत नहीं कि रील्स ने लोकतंत्र को "वायरल" बना दिया है, लेकिन यह भी सच है कि इसने क्रांति को सतही कर दिया है। आज की क्रांति का मापदंड व्यूज़, लाइक्स और फॉलोअर्स बन गए हैं। एक रील की सफलता इस बात से तय होती है कि उसने कितने लोगों को हँसाया, रुलाया या चौंकाया। लेकिन असल क्रांति का रास्ता इतना आसान नहीं। वह सड़कों पर, कोर्टरूम में, और कभी-कभी जेल की दीवारों के बीच से होकर गुज़रता है। इतिहास गवाह है कि तिलक, गाँधी, या भगत सिंह ने अपनी लड़ाई सड़कों पर लड़ी, न कि किसी स्क्रीन पर। उनकी क्रांति में खून, पसीना और बलिदान था, न कि ट्रेंडिंग ऑडियो और फिल्टर्स।

फिर भी, यह कहना गलत होगा कि रील्स का कोई योगदान नहीं। इसने उन आवाज़ों को मंच दिया है, जो पहले दबा दी जाती थीं। लेकिन हमें यह समझना होगा कि रील्स बदलाव का पहला कदम हो सकती हैं, आखिरी नहीं। जब तक हम स्क्रीन से सड़क तक का सफर तय नहीं करते, तब तक क्रांति अधूरी रहेगी। क्योंकि सच्चा बदलाव तब आता है, जब लोग न केवल लाइक और शेयर करें, बल्कि सवाल पूछें, जवाब माँगें और ज़रूरत पड़े तो सड़कों पर उतरें। रील्स से क्रांति की शुरुआत हो सकती है, लेकिन रीयल से ही इतिहास बनता है।

डिजिटल युग में हमारी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है कि हम सच्चाई और मनोरंजन के बीच की महीन रेखा को पहचानें। रील्स, अपने छोटे-से दायरे में, हमें जागरूक करने की ताकत रखती हैं—वे मुद्दों को उजागर करती हैं, भावनाओं को झकझोरती हैं, और लाखों लोगों तक आवाज़ पहुँचाती हैं। मगर यह ताकत तभी सार्थक है, जब हम इसे स्क्रीन की चमक-दमक तक सीमित न रहने दें। सच्चा बदलाव सड़कों पर, समुदायों में, और हमारे ठोस कदमों से आता है। अगर हम केवल रील्स देखकर, लाइक और शेयर करके संतुष्ट हो जाते हैं, तो क्रांति महज़ एक क्षणिक ट्रेंड बनकर रह जाएगी। असली सवाल—न्याय, समानता, और स्वतंत्रता के सवाल—वायरल वीडियो की भीड़ में दब जाएँगे और जेल की दीवारों में कैद होकर रह जाएँगे। बदलाव की शुरुआत स्क्रीन से हो सकती है, लेकिन उसका अंत हमें असल दुनिया में करना होगा, जहाँ जोखिम, मेहनत और समर्पण ही सच्ची क्रांति को जन्म देते हैं।

 

 

-प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

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