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लोकसभा चुनावों के नज़दीक आते ही सियासत में नित नए विस्फोट होने लगे है। ताज़ा मामला परिवारवाद
पर सुर्खियां लिए है। लगता है परिवारवाद का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आगया है। पटना की एक
बड़ी रैली में आरजेडी सुप्रीमों लालू यादव ने अपने परिवार की एक सदस्य और अपनी बेटी रोहिणी आचार्य
के राजनीति में पदार्पण की घोषणा करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के परिवार को लेकर हमला बोला।
लालू ने कहा मोदी का कोई परिवार नहीं है और मोदी हिन्दू भी नहीं है। इसके जवाब में मोदी ने कहा,
भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तुष्टिकरण में डूबे विपक्षी गठबंधन इंडिया के नेता बौखलाते जा रहे हैं। इन्होंने
2024 का असली घोषणा-पत्र निकाला है। मैं इनके परिवारवाद पर सवाल उठाता हूं तो ये बोलने लगे कि
मोदी का कोई परिवार नहीं है। उन्होंने लालू यादव का नाम लिए बिना कहा 140 करोड़ जनता उनका परिवार
है। इसके साथ ही भाजपा नेताओं ने सोशल मीडिया हैंडल एक्स पर अपना बायो चेंज करते हुए मोदी का
परिवार लिख दिया है।
लालू यादव ने मोदी के परिवार पर टिप्पणी कर कुछ ऐसी ही गलती कर दी, जो गलती राहुल गांधी ने साल
2019 में लोकसभा चुनाव के पहले की थी। साल 2019 में चुनाव रैली के दौरान कांग्रेस नेता ने 'चौकीदार चोर
है का नारा दिया था', जिसके बाद बीजेपी नेताओं ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए 'मैं भी चौकीदार' कैंपेन
शुरू किया था। भाजपा ने मोदी के परिवार को लेकर देशभर में मुहीम छेड़ दी। इसके साथ ही लोगों को
चौकीदार वाले बयान की याद ताज़ा करा दी। साल 2019 के आम चुनाव से पहले भी नरेंद्र मोदी का एक
बयान बड़ा पॉपुलर हुआ था। उन्होंने तब कहा था, मैं चौकीदार हूं। बीजेपी की ओर से इस नारे को लेकर बड़े
स्तर पर अभियान भी चलाया गया था और इस बार परिवार वाले नारे पर "मोदी का परिवार" वाला नारा
देखने को मिला है। विपक्षी नेताओं का यह बयान उनके गले की फ़ांस बनते देर नहीं लगा।
भारतीय राजनीति में पंचायत से संसद तक परिवारवाद हावी है। राजनीति में परिवारवाद की गंगोत्री गांधी
परिवार को माना जाता हैं, जो मोती लाल नेहरू से शुरू हुआ और आज राहुल गांधी तक पहुंच चुका है।
परिवारवाद की परिभाषा यही है कि कोई ऐसा व्यक्ति राजनीति में आए जिसके परिवार का कोई सदस्य
पहले भी चुनाव जीत चुका हो या अभी किसी न किसी पद पर कार्यरत हो। इसमें रिश्तेदार भी शामिल होते
हैं। 2004 से 2014 के बीच लगभग एक चौथाई सांसद परिवारवाद की राजनीति से आए थे। एक रिपोर्ट
कहती है कि ये आंकड़ा 25 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 30 प्रतिशत पहुंच गया है। उत्तर से लेकर दक्षिण और
पूरब से लेकर पश्चिम तक राजनीति में परिवारवाद ने अपनी जड़ इतनी ज्यादा मजबूत कर ली है कि उसे
हटाना अब नामुमकिन हो गया है। हमारे लोकतान्त्रिक देश में एक दर्जन राज्यों में परिवारवाद की चिंगारी
अभी सुलग रही है। यूँ देखा जाये तो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में वंशवादी राजनीति न के बराबर है जबकि
कांग्रेस, सपा, डीएमके, आरजेडी, एनसीपी, लोकदल के नाम से विभिन्न दल, नेशनल कॉन्फ्रेंस, लोक
जनशक्ति पार्टी, देवेगौड़ा की पार्टी, अकाली दल जैसे दलों का संगठन और सत्ता एक परिवार विशेष के लिए
समर्पित है। कई राजनीतिक विश्लेषक परिवारवाद और वंशवाद की परिभाषा अलग अलग बताते है। इन
लोगों की मान्यता के अनुसार यदि संघर्ष के रास्ते कोई भाई अपनी जगह सियासत में बनाकर आता है तो
उसे परिवारवाद का दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। वहीँ दूसरे पक्ष के विश्लेषक मानते है कि परिवार के
सहारे आगे बढ़ना अनुचित है। भारत के लोकतंत्र को समझने वाले लोगो का एक दृष्टिकोण ये भी है की इस
देश में वंशवाद और राजशाही को लोकतंत्र का जामा ओढ़ाया गया है। राजशाही के जमाने में और लोकतंत्र में
फर्क सिर्फ इतना है कि तब राजा ही अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित करता था अब वो जनता से घोषित
करवाता है। बहरहाल आम जनता की नजर में परिवारवाद और वंशवाद में कोई ज्यादा फर्क नहीं है।
लोकतंत्र के लिए यह हितकारी नहीं है। 
- बाल मुकुन्द ओझा
 
                                                                        
                                                                    