मनरेगा के बाद ग्रामीण रोजगार की नई रूपरेखा
ग्रामीण भारत के विकास की यात्रा में मनरेगा एक ऐतिहासिक पड़ाव रहा है। वर्ष 2005 में जब यह कानून अस्तित्व में आया था, तब देश के ग्रामीण समाज की जरूरतें, चुनौतियां और संरचना आज से बिल्कुल अलग थीं। उस समय व्यापक गरीबी, सीमित आजीविका के साधन और सामाजिक सुरक्षा के अभाव ने सरकार को एक ऐसे अधिकार-आधारित कानून की ओर प्रेरित किया, जो ग्रामीण नागरिक को काम का वैधानिक भरोसा दे सके। दो दशक बाद सरकार अब मनरेगा की जगह विकसित भारत–गारंटी फॉर रोजगार एवं आजीविका मिशन (ग्रामीण) या “विकसित भारत जी राम जी” नाम से नए कानून को लाने की तैयारी कर रही है। यह बदलाव केवल योजना का नहीं, बल्कि सोच और नीति के ढांचे का भी संकेत देता है।
सरकार का दावा है कि नया कानून मनरेगा की कमजोरियों को दूर करेगा और ग्रामीण भारत को अधिक मजबूत, आत्मनिर्भर और भविष्य के प्रति सक्षम बनाएगा। 100 दिनों की जगह 125 दिनों की रोजगार गारंटी, साप्ताहिक भुगतान, डिजिटल निगरानी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित नियंत्रण और टिकाऊ परिसंपत्तियों के निर्माण जैसे प्रावधान निस्संदेह आकर्षक लगते हैं। जल संरक्षण, जलवायु अनुकूलन, आजीविका आधारित अवसंरचना और बाजार से जुड़ाव जैसे क्षेत्रों पर जोर यह दर्शाता है कि सरकार अब ग्रामीण रोजगार को केवल राहत के उपाय के रूप में नहीं, बल्कि दीर्घकालिक विकास की रणनीति के रूप में देख रही है। राष्ट्रीय ग्रामीण अवसंरचना संग्रह में परिसंपत्तियों का पंजीकरण इस सोच को और स्पष्ट करता है कि गांवों में होने वाला हर कार्य राष्ट्रीय विकास की बड़ी तस्वीर से जुड़ा हो।
यह भी सच है कि पिछले वर्षों में ग्रामीण भारत में कई सकारात्मक बदलाव आए हैं। गरीबी दर में गिरावट, डिजिटल भुगतान की व्यापकता, आधार से जुड़ी सेवाएं और ग्रामीण आजीविका के नए अवसरों ने मनरेगा के मूल स्वरूप को कुछ हद तक अप्रासंगिक बना दिया है। मनरेगा के अंतर्गत दुरुपयोग, कागजों पर बने काम, मशीनों का अनुचित इस्तेमाल और फर्जी उपस्थिति जैसी शिकायतें लगातार सामने आती रही हैं। ऐसे में सरकार का यह कहना कि एक अधिक अनुशासित, पारदर्शी और परिणामोन्मुखी ढांचे की जरूरत है, पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता।
फिर भी, इस नए कानून को लेकर सबसे बड़ा सवाल उसके मूल दर्शन से जुड़ा है। मनरेगा की आत्मा यह थी कि काम मांगने पर काम देना राज्य का कानूनी दायित्व है। यह अधिकार गरीब ग्रामीण नागरिक को प्रशासन के सामने खड़ा होने का नैतिक और कानूनी बल देता था। नए कानून में मांग आधारित व्यवस्था की जगह मानक वित्तपोषण को अपनाने की बात कही गई है, जिसमें राज्यों के लिए बजट की एक तय सीमा होगी। भले ही सरकार यह आश्वासन दे कि रोजगार का अधिकार सुरक्षित रहेगा और समय पर काम न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा, लेकिन व्यवहार में यह व्यवस्था अधिकार की धार को कुछ कुंद करती दिखाई देती है। जब संसाधन पहले से सीमित होंगे, तो काम मांगने की स्वतंत्रता स्वतः ही सीमित हो सकती है।
कृषि मौसम में 60 दिनों तक सार्वजनिक कार्यों को रोकने का प्रावधान भी दोहरे अर्थ रखता है। एक ओर यह किसानों के हित में बताया जा रहा है, ताकि बुआई और कटाई के समय मजदूरों की कमी न हो और कृषि लागत न बढ़े। दूसरी ओर, यह प्रावधान प्रशासनिक विवेक पर अत्यधिक निर्भर हो सकता है। यदि किसी क्षेत्र में खेती के मौसम के बावजूद बेरोजगारी की स्थिति बनी रहती है, तो मजदूर के पास काम मांगने का विकल्प सीमित हो जाएगा। बिना स्पष्ट दिशा-निर्देश और अपील की व्यवस्था के यह प्रावधान नियंत्रण का औजार भी बन सकता है।
राज्यों पर वित्तीय बोझ का प्रश्न भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। केंद्र और राज्य के बीच 60:40 का वित्तीय अनुपात अपेक्षाकृत सक्षम राज्यों के लिए भले ही व्यावहारिक हो, लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों के लिए यह चुनौतीपूर्ण हो सकता है। यदि राज्य अपने हिस्से का भुगतान समय पर नहीं कर पाते, तो रोजगार और मजदूरी दोनों प्रभावित होंगी। ऐसे में यह स्पष्ट होना जरूरी है कि अंतिम जिम्मेदारी किसकी होगी और गरीब नागरिक को अपने अधिकार के लिए किस दरवाजे पर जाना होगा।
पारदर्शिता और निगरानी के लिए प्रस्तावित तकनीकी उपाय—जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता, जीपीएस आधारित निगरानी और वास्तविक समय में जानकारी देने वाले डैशबोर्ड—सैद्धांतिक रूप से मजबूत हैं। लेकिन तकनीक अपने आप में समाधान नहीं होती। यदि ग्राम पंचायतें केवल आंकड़े भरने वाली इकाइयों में बदल जाती हैं और ग्राम सभा की भूमिका कमजोर पड़ती है, तो स्थानीय स्वायत्तता का मूल विचार प्रभावित होगा। ग्रामीण विकास की सफलता अंततः इस बात पर निर्भर करती है कि स्थानीय समुदाय को योजना बनाने और निगरानी में कितनी वास्तविक भागीदारी मिलती है।
इस पूरे विमर्श में राजनीतिक और वैचारिक पहलू भी जुड़े हुए हैं। मनरेगा के नाम से जुड़ा सामाजिक न्याय और अधिकार आधारित राजनीति का प्रतीकात्मक अर्थ रहा है। उसका हटना केवल नाम परिवर्तन नहीं, बल्कि नीति की दिशा में बदलाव का संकेत भी माना जा रहा है। यही कारण है कि विपक्ष इस विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजने और व्यापक चर्चा की मांग कर रहा है, जिसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिहाज से असंगत नहीं कहा जा सकता।
अंततः विकसित भारत–गारंटी फॉर रोजगार एवं आजीविका मिशन को न तो पूरी तरह आशंका के चश्मे से देखा जाना चाहिए और न ही बिना शर्त उम्मीदों के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए। यह एक ऐसा नीतिगत प्रयोग है जिसमें संभावनाएं भी हैं और जोखिम भी। यदि इसे सहमति, पारदर्शिता, संघीय संतुलन और स्थानीय क्षमता निर्माण के साथ लागू किया गया, तो यह सचमुच ग्रामीण भारत को टिकाऊ विकास की राह पर ले जा सकता है। लेकिन यदि अधिकार की भावना कमजोर पड़ी और क्रियान्वयन में राज्यों व पंचायतों की भूमिका सीमित हुई, तो यह सुधार के नाम पर एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा कवच के क्षरण का कारण भी बन सकता है। विकसित भारत की नींव मजबूत तभी होगी, जब विकास के साथ अधिकार और विश्वास भी समान रूप से मजबूत रहें।
- महेन्द्र तिवारी