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दलित वोटों को रिझाने के लिए सियासी दावपेंच

दलित वोटों को रिझाने के लिए सियासी दावपेंच

देश में लोकसभा की 84 सीटें दलितों के लिए आरक्षित है। इनमें से पिछले लोकसभा चुनाव में
भाजपा ने 46 सीटें जीत ली थी। बताते है जो पार्टी दलितों की अधिकतम सीटें प्राप्त करेगी वही
देश पर राज करेगी। इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा सहित सभी सियासी पार्टियों ने दलित
मतदाताओं को रिझाने के लिए साम दाम दंड भेद की नीति अख्तियार करली है। लोकसभा
चुनाव से पहले इंडिया गठबंधन के जातिवार गणना के दांव से सभी दलों की नजर दलितों पर
भी लगी हुई है। इंडिया गठबंधन ने देश को पहला दलित प्रधान मंत्री देने के लिए कांग्रेस
अध्यक्ष मलिकार्जुन खरगे का नाम आगे कर दिया है। भाजपा ने दलितों में लाभार्थियों का एक
बड़ा वर्ग अपने पक्ष में कर विरोधी पार्टियों को पीछे छोड़ दिया है। एक जानकारी के मुताबिक
2014 से 2019 के बीच दलित वोट 24 प्रतिशत से 34 प्रतिशत तक बीजेपी को मिला है।
लोकसभा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए सत्तारूढ़ और विपक्षी दोनों मोर्चों दलितों पर डोरे डाल रहे
हैं। दलित वोटों को हासिल करने के लिए नए नए दांव और पैतरे आजमाए जा रहे है। बताया
जाता है दलित वोट जिधर जाते है सत्ता की चाबी उसे ही मिलती है। दलित जिस दल की ओर
जाएंगे, उसकी काफी हद तक राह आसान कर देंगे। इनकी संख्या को देखते हुए सभी राजनीतिक
दलों ने इनको अपने पाले में खींचने की कवायद तेज कर दी है। भाजपा को पिछले दो लोकसभा
चुनावों में झोली भरकर दलित वोट मिले थे। भाजपा ने एक दलित महिला को राष्ट्रपति के पद
पर बैठाकर इन वोटों को रिझाने का काम किया है। अब 2024 के लोकसभा चुनावों में एनडीए
और इंडिया गठबंधनों ने दलित वोटों को लुभाने के अपने प्रयास तेज कर दिए है।
दलित का मतलब पीड़ित, शोषित व्यक्ति से है। अनुसूचित जाति को दलित बताया जाता है। संवैधानिक
भाषा में इन्हें अनुसूचित जाति कहां गया है। भारतीय जनगनणा 2011 के अनुसार भारत की जनसंख्या में
लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की है। आजादी के बाद दलितों को चुनावी हथियार
समझा गया। कांग्रेस पार्टी का इस वर्ग के वोटों पर एकाधिकार स्थापित हो गया। जगजीवन राम 1977 तक
दलितों के एकछत्र नेता के रूप में स्थापित हुए। दरअसल 1977 के बाद दलित सियासत में एक नए युग की
शुरुआत हुई। दलित वोट कांग्रेस से छिटक कर दूसरे दलों की तरफ जाने लगे। इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर
दलितों का विश्वास जीता। राजीव गाँधी को भी दलितों का हितचिंतक समझा गया। जनता पार्टी के विघटन
के बाद दलित भी बिखर गए। महाराष्ट्र के कुछ नेताओं ने दलित सियासत की कमान सँभालने का प्रयास
किया मगर सफल नहीं हुए। जगजीवन राम के बाद कांशीराम दलितों के बड़े नेता के रूप में उभरे और कुछ

हद तक यूपी के दलितों के एक बड़े तबके ने उन्हें अपने रहनुमा के रूप में स्वीकारा। शुरू में उन्होंने सवर्णों के
विरुद्ध आग उगली मगर जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया की ऊँची जातियों से गठजोड़ किये बिना दलितों
का भला नहीं होगा। मुलायम सिंह से गठजोड़ कर कांशीराम ने दलित सियासत को धार दी जिसके
फलस्वरूप यूपी की राजनीति में उन्हें पैर जमाने में सफलता मिली। बाद के दिनों में मायावती को साथ
लेकर कांशीराम ने स्वर्ण जातियों से गठजोड़ कर दलित सियासत को शिखर पर पहुँचाया। कांशीराम ने
बहुजन समाज पार्टी का गठन किया जिसने तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार नारे के साथ
कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियों के सारे समीकरण बिगाड़ दिए। कांशीराम को मायावती जैसी सहयोगी
मिलने के बाद उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की सत्ता हासिल करने में ज्यादा जोर नहीं लगाना पड़ा। कांशीराम
के निधन के बाद मायावती दलितों की नेता के रूप में स्थापित हो गयी।
इसी बीच भारतीय जनता पार्टी ने दलित वोटों को अपनी झोली में डाल कर दलित वोटों पर अपनी पकड़
मजबूत की। मायावती से यूपी का ताज छीनने के बाद भाजपा ने दलितों में अपना आधार बढ़ाया। दलित
वोटों का कांग्रेस से मोह भंग होने से यह पार्टी सत्ताविहीन हो गयी। मायावती का जनाधार खिसकने से
दलितों के पास शक्तिशाली नेतृत्व नहीं रहा। दलित नेतृत्व भाजपा ने हथिया लिया।

बाल मुकुन्द ओझा

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