मजदूरों की व्यथा : हरि अनंत हरि कथा अनंता
वह भी एक दिन था जब मई दिवस पर मज़दूर एकता ज़िंदाबाद के नारों से देश गूंज उठता था। विशेषकर
देश की राजधानी दिल्ली सहित कोलकाता, मुंबई, बंगलौर,पूना, हैदराबाद, लखनऊ, पटना, मद्रास,
विजयबाड़ा, त्रिवेंद्रम, पंजिम, चंडीगढ़, कानपुर जैसे महानगरों में मज़दूरों के लक्खी जुलुस देखने को
मिलते। उन जुलूसों में आज की तरह लग्जरी गाड़ियों का हुजूम देखने को नहीं मिलता अपितु हाथ में अपने
संगठन के झंडे लिए पैदल, अनुशासित और कतारबन्द चलते हुए मजदूरों के जन समुद्र के दिग्दर्शन होते
थे। मजदूरों के नेता जुलूसों में नारे लगाते आगे आगे चलते थे। आज की तरह उनके लिए बढ़िया भोजन का
प्रबंध नहीं होता था। वे अपने साथ एक पोटली लाते थे जिसमें घर से लाया हुआ उनका भोजन होता था। कई
कई किलोमीटर चलने के बाद वे किसी मैदान में बैठकर अपने सुख दुःख की बाते करते हुए अपना खाना
खाते थे। ये मजदूर अपने कारखानों, मिलों से आते थे। उनका साथ टैक्सी, रिक्शा , रेल, परिवहन और
दिहाड़ी मज़दूर भी देते थे। उनके रूखे सूखे भोजन में खून पसीने की कमाई की गंध आती थी। आज़ादी के
बाद आठवें और नौवें दशक तक कमोवेश मज़दूर आंदोलन की तूती बोलती थी। मगर धीरे धीरे मजदूर
आंदोलन दम तोड़ने लगा। मजदूर दिवस आज भी मनाया जाता है मगर वह पुराणा जोशोखरोश देखने को
नहीं मिलता।
आज एक बार फिर मई दिवस पर मज़दूरों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले लोगों की याद बड़ी शिद्धत से आ
रही है। एम एन जोशी, श्री पाद अमृत डांगे, एस एम बनर्जी, पीटर अलवारिस, ज्योति बसु ,भूपेश गुप्त, दता
सामंत, शंकर गुहा नियोगी, जॉर्ज फर्नांडिस, दंतोपंत ठेंगड़ी, हरकिशन सिंह सुरजीत सरीखे मज़दूर नेताओं
ने श्रमिकों की खुशहाली के लिए जीवनपर्यन्त अपना खून पसीना बहाया। आज के दिन इन सभी नेताओं को
देश अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। वह भी समय था जब इन नेताओं के एक आह्वान पर कारखानों
और मिलों में ताले लग जाते। रेल के चक्के जाम हो जाते। टैक्सियों के पहिये रुक जाते। भारत बंद हो जाता।
दुनिया के मज़दूरों एक हो, इंकलाब ज़िंदाबाद, जो हमसे टकराएगा मिट्टी में मिल जायेगा, चाहे जो मजबूरी
हो, रोजी रोटी दे न सके वो सरकार निक्कमी है, यह आजादी झूठी है देश की जनता भूखी है, हर जोर-जुल्म
की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है, आवाज दो हम एक हैं, जो सरकार निक्कमी है वो सरकार बदलनी है,
हमारी मांगे पूरी हों जैसे आसमान को गूंजा देने वाले क्रन्तिकारी नारे अब कम ही सुनाई देते है। आज इंटक,
एटक, सीटू, भारतीय मज़दूर संघ और हिन्द मज़दूर सभा जैसे मज़दूर संगठनों का अस्तित्व बयानों तक
सीमित होकर रह गया है।
अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पूरे विश्व में 1 मई को मनाया जाता है। मजदूर हमारे समाज का वह तबका है
जिस पर समस्त आर्थिक उन्नति टिकी होती है। वह मानवीय श्रम का सबसे आदर्श उदाहरण है । आज के
मशीनी युग में भी उसकी महत्ता कम नहीं हुई है। उद्योग, व्यापार ,कृषि, भवन निर्माण, पुल एवं सड़कों का
निर्माण आदि समस्त क्रियाकलापों में मजदूरों के श्रम का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है । मजदूर अपना श्रम
बेचता है। बदले में वह न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करता है। उसका जीवन-यापन दैनिक मजदूरी के आधार पर
होता है। जब तक वह काम कर पाने में सक्षम होता है तब तक उसका गुजारा होता रहता है। जिस दिन वह
अशक्त होकर काम छोड़ देता है, उस दिन से वह दूसरों पर निर्भर हो जाता है। भारत में कम से कम
असंगिठत क्षेत्र के मजदूरों की तो यही स्थिति है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की न केवल मजदूरी कम होती
है, अपितु उन्हें किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा भी प्राप्त नहीं होती। महात्मा गांधी ने कहा था कि
किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है। उद्योगपति स्वय को मालिक
या प्रबंधक समझने की बजाय अपने-आप को ट्रस्टी समझे ।
आजादी के बाद देश ने विज्ञान, कृषि, उद्योग, सूचना प्राद्योगिकी, तकनीक सहित अनेक क्षेत्रो में तरक्की
की लेकिन इस तरक्की से कौसो दूर रहे मजदूर वर्ग को जीवन यापन के लिए आज भी कड़ी मशक्क्त से
गुजरना पड़ता है। देश के विकास में मजदूर वर्ग का एक बड़ा योगदान होने के बावजूद भी मजदूर वर्ग की
निजी जिंदगियाँ विकास से अछूती रही हैं। दुनियां के मजदूरों एक हो का नारा हमने बुलंद किया। अनेक श्रम
कानून बनाकर मजदूर वर्ग के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। संगठित क्षेत्रों में मजदूरों को इसका लाभ भी
मिला मगर असंगठित क्षेत्र के मजदूर आज भी रोटी कपडा और मकान के लिए तरस रहे है। दिहाड़ी और
असंगठित क्षेत्र के मजदूर सबसे अधिक शोषण के शिकार होते हैं। इसलिए कहा गया है मजदूरों की व्यथा
हरि अनंत हरि कथा अनंता जैसी है।आजादी के 75 वर्षों के बाद भी हम कामगारों को न्याय नहीं दिला पाए
है। मगर असंगठित क्षेत्र के मजदूर आज भी अपने हकों से मरहूम है। आज उनके लिए फर्नांडीज ,गोपालन
या ठेंगड़ी जैसा नेता नहीं है। आजादी के शुरू के 50 वर्षों में मजदूरों के हितों के लिए लड़ाई लड़ने वाले नेता थे
मगर आज दूर दूर भी कोई संघर्षशील नेता दिखाई नहीं दे रहा है। अब तो मजदूरों को मई दिवस भूलना
पड़ेगा या संघर्ष की कमान खुद को ही संभालनी पड़ेगी तभी मई दिवस का सपना पूरा होगा।
- बाल मुकुन्द ओझा