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अतीक-अशरफ हत्याकांड: कुछ सुलगते सवाल

अतीक-अशरफ हत्याकांड: कुछ सुलगते सवाल

बीती रात दुर्दांत अपराधी अतीक अहमद व उसके भाई अशरफ की पुलिस अभिरक्षा में हुई हत्या निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है तथा यह घटना कानून व्यवस्था की स्थिति पर गंभीर सवाल उठाती है किंतु इस घटना को एनकाउंटर कहना उचित नहीं होगा प्रारंभिक सूचनाओं के मुताबिक तीनों अपराधी युवा हैं तथा अपराध जगत में अपना नाम ऊंचा करने की महत्वाकांक्षा के चलते उन्होंने इस घटना को अंजाम दिया है। साथ ही हमें एक महत्वपूर्ण पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए कि हत्या कांड के बाद तीनों अपराधियों ने घटनास्थल से भागने का प्रयास करने के बजाय स्वेच्छा से समर्पण कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने घटना की उच्चस्तरीय जांच के आदेश दिए हैं, जांच के नतीजे आने के बाद ही सच्चाई सामने आ पाएगी। इस घटना की औपचारिक निंदा किया जाना इसलिए आवश्यक है कि हम कानून द्वारा संचालित सभ्य समाज में रहते हैं जहां इस प्रकार के हत्याकांड या किसी भी प्रका,र की हिंसक गतिविधि को उचित नहीं ठहराया जा सकता। इन हत्याओं के संबंध में मृतकों के प्रति जनमानस में अंश मात्र भी सहानुभूति नहीं है क्योंकि अतीक ,अशरफ व उनका पूरा परिवार दशकों तक समूचे पूर्वी उत्तर प्रदेश में भय व आतंक का पर्याय रहे हैं। इन लोगों पर हत्या, अपहरण, हत्या के प्रयास, फिरौती, रंगदारी जैसे जघन्य अपराधों के मुकदमे सैकड़ों की तादाद में चल रहे थे। पचासों लोगों की हत्याओं में इन माफिया बंधुओं का सीधा हाथ रहा। हाल ही में अतीक और अशरफ से किए जा रहे अनुसंधान में इन माफियाओं के तार पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और खुफिया एजेंसी आईएसआई से जुड़े होने की बातें भी सामने आई थी। पिछले 40 सालों से अधिक से अतीक व उसके खानदान द्वारा क्षेत्र में समानांतर सरकार चलाई जा रही थी। उसके विरोध का एकमात्र परिणाम मौत था। आतंक का आलम यह था कि कोई उसके खिलाफ गवाही तक देने को तैयार नहीं था। इतने लंबे आपराधिक इतिहास के बाद भी अतीक अहमद का समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से सांसद व कई बार विधायक रहना माफिया डॉन के राजनीतिक रसूख का खुला सबूत था। ऐसे दुर्दांत अपराधियों का अंत उनके आपराधिक जीवन की तार्किक परिणति है और यदि इसे लेकर जनमानस में खुशी की लहर है.. जश्न का माहौल है तो इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है। जिस तरह अन्याय अत्याचार व पाप के प्रतीक रावण के वध पर खुशियां मनाई जाती है, उसी तरह इस क्रूर माफिया डॉन के अंत पर खुशी मनाना आम जनता का नैसर्गिक अधिकार है।
यदि आज न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि संपूर्ण देश में इस घटना को सत्य की विजय के रूप में देखकर संतोष व्यक्त किया जा रहा है तो यह अवसर है जब देश की न्यायपालिका को अपने अंदर झांक कर आत्मावलोकन करना चाहिए। लोगों का यकीन अदालतों से खत्म हो रहा है कि यहां अपराधियों को समय पर सजा नहीं मिल सकती। न्याय प्रणाली के प्रति विश्वास का संकट गहरा हो चुका है। लोग पुलिस या दीगर अपराधियों द्वारा कानून अपने हाथ में लेकर इंसाफ करने को जायज ठहरा रहे हैं। हम जानते हैं कि कानून अपने हाथ में लेकर खुद इंसाफ करने की यह प्रवृत्ति हमें अराजकता के ऐसे अंधे मोड़ की तरफ लेकर जाएगी, जिसे एक संविधान सम्मत सभ्य समाज में कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, मगर क्या करें जब सरेआम अपराध करने वाला मुजरिम सबूतों के अभाव में छूट जाए? क्या करें जब खुले में अपराध कार्य करने वाले व्यक्ति को अपराधी साबित करने व सजा दिलाने में हमें दस बीस बरस का लंबा अरसा लग जाए? जब न्याय की आस में पथरा गईं आंखें हथियार उठाकर खुद न्याय करने का सपना देखने लगे ? इन सवालों से जितना जल्दी हो सके हमारी न्याय व्यवस्था को रूबरू होना ही होगा अन्यथा हमें पुलिस एनकाउंटर के लोगों द्वारा अपराधियों को सरेआम गोली से उड़ा देने जैसी घटनाओं को देखते व भुगतये रहने को तैयार रहना पड़ेगा। इस मुद्दे पर मैं न्याय प्रणाली के साथ पुलिस की अनुसंधान एजेंसी को भी शामिल करना चाहूंगा। हाल ही में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा जयपुर बम ब्लास्ट के आरोपियों को बरी करते हुए अपने निर्णय में अनुसंधान एजेंसियों की लापरवाही कमियों आदि पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं। किसी भी अपराध को प्रमाणित करने में अनुसंधान की अति महत्वपूर्ण भूमिका होती है और न्याय दान की प्रक्रिया को अधिक सार्थकता परिणाम पारदर्शी और विश्वसनीय बनाने हेतु हमें अपने अनुसंधान की गुणवत्ता का स्तर ऊंचा उठाना होगा। यह कोई सामान्य घटना नहीं है,इसमें छुपे संकेतों और निहितार्थ का समाजशास्त्रीय विश्लेषण आवश्यक है, तदानुसार शासन व्यवस्था, न्याय प्रणाली, अनुसंधान सिस्टम में परिवर्तन करने होंगे।

-कैलाश जैन

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