पिछड़ा वर्ग आरक्षण की समीक्षा
26 जनवरी 1950 को जब भारतीय संविधान लागू हुआ, पिछड़ा वर्गो के आरक्षण के संबंध मं कोई संवैधानिक प्रावधान न हीं था। उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों ने अदालती फैसले जसवंत कौर बनाम बम्बई राज्य ए.आई.आर. 1952 पृष्ठ 461 मद्रास हाई कोर्ट के फैसले ए.आई.आर. 1951 पृष्ठ 120, उच्चतम न्यायालय के फैसले श्रीमती चम्पकम बोराई राजन बनाम मद्रास राज्य ए.आई.आर. 1951 सु.को.पृष्ठ 266 द्वारा राज्यों में प्रचलित पिछड़े वर्ग आरक्षण की वैद्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये। इन फैसलों के प्रभाव को दूर करने के लिए पं. जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में प्रथम संविधान संशोधन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा ‘‘सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग एवं समूहों को शिक्षा के क्षेत्र में व शासकीय सेवाओं में व्यवस्था उनका संवैधानिक अधिकार है।’’ संविधान में अनुच्छेद 15(4) जोड़ा गया तथा सामाजिक, शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गो की उन्न्ति के लिए विशेष उपबन्ध करने का राज्यों को अधिकार मिला। इसी के साथ अनुच्छेद 16(4) के अन्तर्गत पिछड़े वर्गो को शासकीय सेवाओं में आरक्षण देने की व्यवस्था की गई।
तत्पश्चात पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 340(1) के तहत 21 जनवरी 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में 11 सदस्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया। कालेलकर कमीशन ने पूरे देश की 2399 जातियों को पिछड़े वर्ग में शामिल करने हेतु एक सूची तैयार की व अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को प्रस्तुत की।
कालेलकर आयोग द्वारा पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने में एक लम्बा विवाद रहा। केन्द्र सरकार ने प्रथम आयोग की सिफारिशों को इस कारण से स्वीकार नहीं किया क्योंकि पिछड़े वर्गो की पहचान में आयोग ने कोई विषयपरक परीक्षण और मानदण्ड का प्रयोग नहीं किया था, केवल जाति को आधार बनाया। आयोग के 11 सदस्यों में से 5 ने विगत टिप्पणियां की थी। सरकार ने पिछड़ेपन के लिए मानदण्ड के रूप में जाति को माने जाने का विरोध किया और आर्थिक परीक्षणों को लागू करना उपयुक्त समझा। स्वयं काका कालेलकर ने सरकार को प्रस्तुत रिपोर्ट में रही कमियों की तरफ ध्यान देने व सिफारिशों की कमियों के बारे में पत्र लिखा।
सरकार ने जाति के अलावा अन्य मानदण्ड खोजने के प्रयास किये जो व्यावहारिक रूप से लागू हो सके। पिछड़ेपन को जाति के बदले व्यवसायिक समुदाय से जोड़ा जाना उपयुक्त समझा। केन्द्र सरकार ने निर्णय लिया कि अ.भा.स्तर पर पिछड़े वर्गो की सूची नहीं बनायी जानी चाहिए। राज्य सरकारों को गृह मंत्रालय ने पत्र लिखा, राज्य अपनी-अपनी सूचियां बनायें। जाति की अपेक्षा आर्थिक मानदण्ड लागू किये जाए। पं. जवाहरलाल नेहरू ने सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा, जाति के आधार पर नहीं सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर व्यवसायिक वर्गो को विशेष सुविधा व अवसर दिया जाए। उन्होंने पार्लियामेन्ट में कहा कि सामाजिक में आर्थिक पिछड़ापन सम्मिलित है। केन्द्र सरकार ने 1959 में शिक्षा विभाग की ओर से पिछड़े वर्ग की एक सूची जारी की।
इसके पश्चात 11 राज्यों ने 18 आयोग नियुक्त किये। केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों को लिखा ‘‘राज्य में पिछड़ेपन को परिभाषित करे व अपना मानदण्ड निश्चित करें। राज्यों को पिछड़ा वर्ग सूची बनाने व राज्य सेवा व शिक्षा में आरक्षण देने का अधिकार है।’’भारत सरकार के विचार में यह अच्छा होगा यदि आर्थिक मापदण्ड लागू किया जाए। केन्द्र सरकार ने यदि कुछ समूहों को अनुच्छेद 338(3) के अन्तर्गत उल्लिखित भी कर दिया तो भी राज्य के लिए अनुच्छेद 15(4) के अन्तर्गत अपनी सूचियां तैयार करने की छूट होगी। पिछड़े वर्गो को शासकीय सेवाओं में 20 प्रतिशत और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 15 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया।
20 दिसम्बर 1978 को संविधान के अनुच्छेद 340 के अन्तर्गत बी.पी.मण्डल आयोग की संरचना की गई। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1980 में पुनः कहा ‘‘हिन्दु समुदायों के बीच अन्य पिछड़ा वर्गो की पहचान में जाति एक महत्वपूर्ण तत्व है। यदि कोई जाति पूर्णरूप् से सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी है तो ऐसी जाति के पक्ष में आरक्षण नागरिकों का एक वर्ग मानकर किया जाए।’’ द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का प्रतिवेदन 30 अप्रेल 1982 को संसद में प्रस्तुत किया गया। सरकार ने पिछड़ापन निर्धारण हेतु आर्थिक आधार के मापदण्ड के संबंध में पुनः राज्य सरकारों की राय मांगी और मुख्यमंत्रियों की बैठक कर और विचार विमर्श किया। राजनैतिक उठा पटक के बीच कमण्डल मण्डल की आपसी खींचतान में वी.पी.सिंह सरकार ने 13 अगस्त 1990 को आरक्षण संबंधी आफिस मैमामरेन्डम जारी कर दिया जिसके विरूद्ध उच्च्तम न्यायालय में जनहित याचिकाएं पेश हुई, जिसपर उच्च्तम न्यायालय ने स्टे आर्डर जारी कर दिया।
पी.वी.नरसिंहा राव सरकार ने आफिस मैमोरेन्डम में संशोधन किया जिसके द्वारा आरक्षण में आर्थिक मापदण्ड जोड़कर गरीबी को प्राथमिकता देने पर जोर दिया एवं पृथक से 10 प्रतिशत आरक्षण आर्थिक रूप से पिछड़ों को देने हेतु मैमोरेन्डम जारी किया। उच्चतम न्यायालय ने इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में कुछ तब्दिलियों, शर्तो व स्पष्टीकरण के साथ पिछड़ वर्गो की अधिसूचना ओएम 13/08/1990 को वैध ठहराया परन्तु केवल आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण के आफिस मैमोरेन्डम 25/09/1991 को खारीज कर दिया।
उच्चतम न्यायालय ने राज्य स्तर पर राजय सरकारों को परमानेन्ट पिछड़ा वर्ग आयोग गठित कर पिछड़ा वर्ग सूची बनाने, नाम जोड़ने-घटाने, लगातार रिवीजन करने तथा 10 वर्ष में पूरा रिवीजन करने का निर्देश दिया। क्रीमीलेयर (अपवर्जन) का सिद्धान्त लागू किया। राज्यों के एक्जीक्यूटिव आदेश को पर्याप्त माना। सामान्यतः 50 प्रतिशत की सीमा तक 27 प्रतिशत आरक्षण को वैध माना।
उच्चतम न्यायालय ने इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार, नागपाल बनाम भारत सरकार (2006) 8 एससीसी 212 व जरनेल सिंह बनाम लक्ष्मीनारायण 2018 (10) एससीसी 396 में कहा है पिछड़ेपन से संबंधित वर्गो के आवश्यक आंकड़े एकत्रित किये जायें, राज्य सेवाओं में प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता देखी जाए। जो वर्ग व व्यक्ति आरक्षण का लाभ प्राप्त कर उन्न्त व समृद्ध हो चुके है व पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त कर चुके, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं देकर उन्हीं वर्गो के अभी तक पिछड़े लोगों को जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिला है आरक्षण का लाभ दिया जाए तथा देखा जाए कि सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ापन निषेधों व निर्योग्यताओं के कारण हुआ है व पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। प्रतियोगिता में गुणवत्ता के आधार पर चुने गये उम्मीद्वारों को समायोजित नहीं किया जाए।
आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और सरकारों को मजबूर नहीं किया जा सकता, राज्य के विवेक व इच्छा पर निर्भर है। अनुच्छेद 335 के अनुसार संघ या राज्य के कार्यो में सशक्त सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में प्रशासन की कार्य पटूता बनाये रखने की संगति के अनुसार हो व आरक्षण हो तथा प्रशासनिक क्षमता का ह्ास नहीं हो।
मद्रास हाई कोर्ट ने अपने फैसले में 50 प्रतिशत से ऊपर आर्थिक आधार पर दिये आरक्षण को अवैध ठहराया है तथा उच्चतम न्यायालय ने हरियाणा सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर अपवर्जन (क्रिमीलेयर) के सिद्धान्त को खारिज किया है। वर्तमान में भारत सरकार ने संविधान संशोधन 102 के द्वारा राज्यों का अधिकार छीन लिया। उच्चतम न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र के मराठा आरक्षण के संबंध में दिये गये फैसले के पश्चात केन्द्र सरकार को गलती का एहसास हुआ और संशोधन 127 द्वारा पुनः राज्यों को राज्य सूची बनाने का अधिकार दिया गया। अब सरकार अपवर्जन के सिद्धांत में तब्दीली करने जा रही है जबकि उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि क्रिमीलेयर केवल आर्थिक आधार पर निर्धारित नहीं किया जा सकता। नीति के अनुसार नियत नहीं होने से नियति यह हो रही है कि देश में जातिवाद व असमानता बढ़ रही है।
पिछड़ा वर्ग आयोग (रोहिणी आयोग) के अनुसार 2486 पिछड़ी जातियों में केवल दस जातियां 25 प्रतिशत का लाभ ले रही है। ऊपर की सौ जातियां तीन चैथाई लाभ जबकि नीचे की एक हजार जातियों को कोई लाभ नहीं मिला। ऐसी स्थिति में आरक्षण की पूर्ण समीक्षा व लिस्टों का रिवीजन आवश्यक है। केन्द्र व राज्य अपनी राजनैतिक सुविधा के अनुसार पिछड़े वर्ग सूचियों में जातियां व उपजातिया जोड़ रहे है। मापदण्डों को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है।। जातिवाद बढ़ रहा है। रिवीजन नहीं होने से आरक्षित वर्गो में असमानता बढ़ रही है। सुप्रिम कोर्ट के स्पष्ट फैसलों पर ध्यान नहीं देकर उसके विपरीत आचरण किया जा रहा है। डाॅ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था ‘‘आरक्षण माइनरिटी तक रहेगा’’ परन्तु उसके विपरीत निर्णय किये जा रहे है। लिस्टों का वर्गीकरण व रिवीजन नहीं किया जा रहा है। जाति आधार पर सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक आंकड़े एकत्रित नहीं किये जा रहे है। जो अब तक अपने को उच्च वर्ग मानते थे वे पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित हो रहे है। नई-नई जातियां, उपजातियां जुड़वाई जा रही है। जांत-पात की राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है।
-डा. सत्यनारायण सिंह