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अच्छा लिखने वाला अच्छा इंसान भी बनें

अच्छा लिखने वाला अच्छा इंसान भी बनें

पटना में एक लेखक कल्पित के दुराचार के मामले में काफ़ी बहस चल रही है ।यह लेखक का व्यक्तिगत मामला है या सार्व जनिक इस पर बहस हो सकती है ।
कोई भी हो जो दुराचारी है उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही हो सकती है फिर उस पर बहस की ज़रूरत क्यों है ।
एक लेखक या पत्रकार कैसा होना चाहिये इस पर आम चर्चा होती रहती हैं लेकिन कोई ऐसी आचार संहिता नहीं है जिससे उसे बाँधा जा सके ।वह अच्छा लिख सकता हैं लेकिन इंसान के रूप में अच्छा भी है या नहीं यह कोई नहीं कह सकता लेकिन जब उसके आचरण को लेकर सवाल उठाए जाते हैं तब पता चलता है कि वह कैसा है ।
पश्चिम समाज में भी आमजन के चरित्र को लेकर कोई सवाल नहीं उठता लेकिन जब कोई राजनीति या सार्वजनिक मंच से जुड़ा होता है तो उसे भी क़ानूनी कार्रवाई के साथ सामाजिक स्तर पर विरोध का सामना करना पड़ता है ।
अमरीका के राष्ट्रपति रहे बिल क्लिंटन को भी मोनिका लेवेंसकी के मामले में क़ानूनी कार्रवाई के साथ सार्वजनिक तौर पर कटघरे में खड़ा किया गया था ।यहाँ भारत में भी मी टू मामले में एम जे अकबर को केन्द्रीय मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था ।
सरकारी नौकरी में भी आचरण को लेकर नियम बने हुए हैं ।पंजाब में आतंकवाद को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण कार्य करने वाले पुलिस महानिदेशक गिल पर एक महिला आई ए एस ने दुराचरण का आरोप लगाया था तब भी यह बहस चली थी कि गिल ने देश के लिए बड़ा काम किया है लिहाज़ा उन पर रहम किया जा सकता है लेकिन महिला ने इसे बड़ी ग़लती मान कर उन्हें सज़ा दिलाने की कोशिश करतीं रही ।
कोई कितना भी बड़ा आदमी हो यदि गलती करता है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिये लेकिन यह सज़ा क़ानूनी दायरे में ही होनी चाहिये या सार्वजनिक मंचों पर भी दोषी ठहराया जाना चाहिये ।
लेखक-पत्रकार के सार्वजनिक जीवन में आचरण को लेकर भी बहस होती रही है ।जो दुनिया को सुन्दर बनाना चाहते हैं और जिनका लिखा पढ़कर उससे मिलने की इच्छा हो और जब वह मिलने पर वैसा नहीं लगे तो फिर सवाल खड़ा होता है कि जो अच्छा लिखता हैं वह अच्छा हो यह ज़रूरी नहीं ।
लेखक-पत्रकारों के शराब पीने के मामलों को भी उनके चरित्र से जोड़कर देखने पर बहस होती रही हैं ।बहुत से लोग शराब पीने को व्यक्तिगत मामला मानते हैं और उनके ग़लत आचरण को भी उसकी सार्वजनिक पहचान पर दाग लगाने वाले को सही नहीं समझते ।
लेखकों के कई क़िस्से हैं जब यह देखा गया कि जितना अच्छा लिखते हैं उतने अच्छे हैं नहीं ।दिल्ली में एक पत्रिका के संपादक और बड़े लेखक पर भी कई आरोप थे ।वह बहुत अच्छा लिखते थे लेकिन हकीकत लिखें से मेल नहीं खातीथी ।एक लेखक की ख्याति इतनी थी कि वह नवोदित लेखकों की रचनाओं को अपने स्तर पर हेरफेर कर अपने नाम से छपवा लेता था लेकिन सार्वजनिक तौर पर वह सम्मानित होता रहा ।

एक बार अज्ञेय जी की वत्सल निधि की यात्रा में शामिल एक गाँव में पड़ाव पर एक स्थानीय लेखक यह सोचकर लेखकों के साथ अपना बिस्तर लगा लिया कि उसे काफ़ी ज्ञान प्राप्त होगा लेकिन सुबह उसने कहा कि जिन लेखकों से मिलने को आतुर था वे लोग वैसे नहीं हैं ।उस समय यह कहा गया कि लेखक की भी निजी ज़िंदगी होती है ।हम लोग ही ऐसे हैं जो किसी की निजी और सार्वजनिक जीवन में भेद नहीं कर सकते ।कहते है कि हमाम में सब नंगे हैं लेकिन हमाम का दायरा इतना बढ़ गया है कि किसी पर कोई क्या अंगुली उठाये ।

हम लोग यह भी सोचते हैं कि सार्वजनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण मानें जाने वालों का जीवन आम इंसान की तरह नहीं हो सकता इसलिए हम उसे भगवान या उच्च दर्जे का इंसान समझते है ।यदि आज जिस लेखक को सार्वजनिक रूप से निन्दित कर रहे है यदि कल उसकी कोई रचना बड़े स्तर पर पुरस्कृत हो जाए तो उसेसम्मानित करने वाले को कैसे रोक पाओगे ।
सभी स्तर पर अच्छा काम करने वाले ज़रूर सम्मानित होने चाहिए लेकिन जिन मानवीय गुणों की समाज को ज़रूरत है उस पर भी वह खरा उतरता है तो निश्चित ही उसका दरजा अव्वल माना जाएगा ।इसमें फिर यही सवाल खड़ा होता हैं कि अच्छा लिखने वाला व्यक्ति अच्छा इंसान भी होना चाहिये क्या ।उसकी दुर्बल मानसिकता ने उसके व्यक्तित्व को कमजोर किया है जिसे सभ्य समाज माफ़ नहीं करना चाहता है अभी तो यही लगता हैं ।
बहुत से ऐसे लोग हैं जो ऊँचाइयाँ छू लेने के कारण हर जगह सम्मानित होते रहते है लेकिन उनका जीवन मुफ्त की शराब पीने और षड़यंत्रों में लिप्त रहने का होता है क्या ऐसे लोगों का भी बहिष्कार नहीं होना चाहिये ।


-सुरेश पारीक

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