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बंजर हो रही भूमि को उपजाऊ बनाने की बड़ी चुनौती

बंजर हो रही भूमि को उपजाऊ बनाने की बड़ी चुनौती

संयुक्त राष्ट्र हर साल 17 जून को मरुस्थलीकरण और सूखे का मुकाबला करने के लिए विश्व दिवस मनाता
है। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य भूमि को मरुस्थल होने से रोकने के लिए जागरूक किया जाता
है। वर्ष 2023 की थीम उसकी भूमि है उसके अधिकार रखी गई है। भूमि के बंजर होने की समस्या ने आज
दुनिया के सामने एक बड़ी चुनौती पैदा कर दी है। भारत की बात करें तो यहां उपजाऊ भूमि के बंजर
होने का खतरा निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में मात्र 11 प्रतिशत
जमीन ही उपजाऊ है। मरुस्थलीकरण का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। भारत में कुल 32 करोड़ 90
लाख हेक्टेयर जमीन में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर बताई जा रही है।
बंजरपन का रकबा साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है जिसे सख्ती से रोका नहीं गया तो देश में
अनाज का संकट खड़ा हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन सहित सूखा, बाढ़,जहरीले कीटनाशकों के तेजी से इस्तेमाल, वनों की कटाई, अधिक
चराई, खराब सिंचाई और अत्यधिक जल दोहन के कारण भू-जल स्तर में निरंतर गिरावट आने से उपजाऊ
धरती मरुस्थल का रूप धारण करती जा रही है। विश्व के समक्ष यह एक बड़ी समस्या है जो दिन प्रतिदिन
गहराती जा रही है। हमारे लाख प्रयासों के बावजूद मरुस्थल का फैलाव रोका नहीं जा सका है। इस समस्या
की जड़ में एक वजह मानवजनित कारणों को बताया जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया हर साल 24 अरब टन उपजाऊ भूमि खो देती है। भूमि की
गुणवत्ता खराब होने से राष्ट्रीय घरेलू उत्पाद में हर साल आठ प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। भूमि
क्षरण और उसके दुष्प्रभावों से मानवता पर मंडराते जलवायु संकट के और गहराने की आशंका है।
मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखा बड़े खतरे हैं जिनसे दुनिया भर में लाखों लोग, विशेषकर महिलाएं
और बच्चे, प्रभावित हो रहे हैं। इससे निपटने के लिए वैश्विक प्रयासों की महती जरुरत है। मरुस्थल या
रेगिस्तान ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों को कहा जाता है जहां जलपात (वर्षा तथा हिमपात का योग) अन्य क्षेत्रों की
अपेक्षा काफी कम होती है। मरुस्थलीकरण की परिभाषा के अनुसार यह जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ
हो जाने की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिवधियों समेत अन्य कई कारणों से
शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्ध-नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है। इससे जमीन की
उत्पादन क्षमता में कमी और ह्रास होता है। एशियाई देशों में मरुस्थलीकरण पर्यावरण सम्बन्धी एक प्रमुख
समस्या है। मरुस्थलीकरण शुष्क, अर्द्ध शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र जैसे विभिन्न क्षेत्रों में भूमि का क्षरण है।

मुख्य रूप से, यह मानवीय गतिविधियों और फिर जलवायु परिवर्तन के कारण होता है। इसका मतलब
मौजूदा रेगिस्तानों का विस्तार नहीं है, बल्कि यह शुष्क भूमि पारिस्थितिक तंत्र, वनों की कटाई, अधिक
चराई, खराब सिंचाई कार्य प्रणाली आदि के कारण होता है जो भूमि की उत्पादकता को प्रभावित करता है।
स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) द्वारा मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर बनाये
देश के पहले एटलस के अनुसार भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का तकरीबन 30 फीसदी हिस्सा मरुस्थल में
तब्दील हो चुका है। इसके अलावा देश के 69 फीसदी हिस्से को शुष्क क्षेत्र के तौर पर वर्गीकृत किया गया है।
देश के सामने उपजाऊ भूमि के क्षरण का यह एक बड़ा खतरा है जिसे रोकने के लिए सामूहिक प्रयासों की
महती जरुरत है।
देश में बढ़ रहे मरुस्थलीकरण के आंकड़े बेहद चौंकाने वाले है। बंजरपन बढ़ रहा है और साथ ही मिट्टी का
कटाव भी बढ़ रहा है। देश का 30 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण की चपेट में है। तीन मिलियन
हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि पिछले 15 वर्षों में ख़राब हुई है। देश में प्रति मिनट 23 हेक्टेयर शुष्क भूमि सूखे
और मरुस्थलीकरण की चपेट में आ जाती है जिसकी वजह से 20 मिलियन टन अनाज का संभावित
उत्पादन प्रभावित होता है। देश का 70 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र शुष्क भूमि के रूप में है जबकि 30 प्रतिशत
जमीन भूक्षरण और 30 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया से गुजरती है। भारत सरकार द्वारा
विभिन्न योजनाएँ शुरू की गई हैं जैसे प्रधानमंत्री आवास बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, मृदा
स्वास्थ्य प्रबंधन योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना प्रति बूंद अधिक फसल, आदि। ये सब भूमि क्षरण
को कम करने में मदद कर रहे हैं।

-बाल मुकुन्द ओझा

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