
शिखर से शून्य की ओर जाता दिख रहा है बसपा का दलित मूवमेंट आंदोलन
बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने जैसे ही अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी में अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, उसके तुरंत बाद मायावती पर भी वंशवाद की राजनीति करने का आरोप लगने लगा है। उनसे पूछा जा रहा है कि मान्यवर कांशीराम के साथ दलित मूवमेंट में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बसपा नेताओं को बहन जी ने क्या इसी दिन के लिए बाहर का रास्ता दिखाया था, ताकि उनके भतीजे के लिए राजनीति का रास्ता सुगम हो सके? हाल ही में मायावती ने अपने सांसद दानिश अली को भी पार्टी से निलंबित कर दिया है, जो इस समय काफी तेजी के साथ बसपा में अपनी पकड़ बना रहे थे। यह और बात है कि इतना सब होने के बाद भी मायावती ने सार्वजनिक मंच से उत्तराधिकारी घोषित करने की पार्टी की परंपरा को कायम रखा। करीब ढाई दशक पहले मान्यवर कांशीराम ने भी इसी तरह मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। उन्होंने भी लखनऊ में एक सभा में मंच से इसका ऐलान किया था। उस समय खासी राजनीतिक हलचल मची थी। कांशीराम के फैसले पर सवाल उठाए गए थे। लेकिन, कांशीराम ने मायावती की प्रतिभा का आकलन करने के बाद उन्हें यह पद देने का ऐलान किया था।
इस घोषणा के करीब 6 साल बाद वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश में मायावती पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुई थीं, लेकिन मायावती के फैसले ने यूपी की सियासी गर्मी को बढ़ा दिया है। क्योंकि उन्होंने बसपा के किसी नंबर दो के दमदार नेता की बजाय भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित करना ज्यादा उचित समझा। यही परंपरा मान्यवर कांशीराम निभाते तो आज मायावती बसपा सुप्रीमो नहीं हो पातीं बल्कि उनकी जगह कांशीराम के परिवार का कोई सदस्य इस कुर्सी पर बैठा होता और हो सकता है वही उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भी होता। हालांकि, मायावती ने बसपा में उत्तराधिकारी घोषित करने की जो पुरानी परंपरा पुरानी है, उसे जीवित जरूर रखा, लेकिन मायावती और मान्यवर कांशीराम के फैसले में जमीन आसमान का अंतर है। यदि ऐसा ना होता तो आज मायावती के भतीजे की जगह कोई और नेता मायावती की सियासी विरासत का उत्तराधिकारी होता। अभी तक मायावती के भतीजे आकाश आनंद सियासत में कुछ ऐसा नहीं कर पाए हैं, जिसके आधार पर उनकी राजनीतिक कुशलता का एहसास किसी को हुआ हो।
गौरतलब है कि मायावती को मान्यवर कांशीराम जब राजनीति में लाए थे तो उसे समय वह आईएएस की तैयारी कर रहीं थीं। उसी दौरान दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में मायावती को बड़े नेताओं के बीच बोलने का मौका मिला। उन्होंने तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण पर हमला बोला। राजनारायण दलितों को हरिजन कहकर संबोधित कर रहे थे। मायावती ने कहा कि आप हमें हरिजन कहकर अपमानित कर रहे हैं। कांशीराम ने जब यह बात सुनी तो वह मायावती के घर पहुंच गए। कांशीराम ने आईएएस बनने की बजाय राजनीति में आने के लिए मायावती को प्रेरित किया। कांशीराम ने मायावती को समझाया कि अगर वह राजनीति में सफल हो जाती हैं तो दर्जनों आईएएस अधिकारी उनके नीचे काम करेंगे। मायावती दलितों के उत्थान के लिए चल रहे संघर्ष के दौर में कांशीराम के साथ जुड़ीं थीं। मायावती 1984 में बसपा का गठन होने के बाद उसमें शामिल हुईं और उसी साल पहला लोकसभा चुनाव कैराना से लड़ा। पहली बार 1989 में वह सांसद बनीं। इसके बाद वह चार बार यूपी की मुख्यमंत्री भी रहीं।
मान्यवर कांशीराम ने 15 दिसंबर 2001 को मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। लखनऊ में एक सभा में कांशीराम ने कहा कि मैं काफी समय से यूपी कम आ पा रहा हूं। लेकिन खुशी की बात यह है कि मेरी इस गैरहाजिरी को कुमारी मायावती ने मुझे महसूस नहीं होने दिया। यह कहकर उन्होंने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। यह ऐसा वक्त था, जब पार्टी संघर्ष के दौर से गुजर रही थी और 2002 के विधानसभा चुनाव होने वाले थे। कांशीराम के निर्णय से पार्टी के उन नेताओं को झटका लगा था, जिनको मायावती ने पार्टी से बाहर किया गया था। आरके चौधरी और बरखू राम वर्मा पार्टी में यह संदेश दे रहे थे कि मायावती के साथ उनके मतभेदों के बावजूद अब भी वे कांशीराम के पसंदीदा हैं। मायावती ने उत्तराधिकारी घोषित करने की उस परंपरा को तो आगे बढ़ाया है, लेकिन एक बड़ा अंतर भी है। कांशीराम ने अपने परिवार के किसी सदस्य को आगे नहीं बढ़ाकर एक मिसाल पेश की थी, जबकि मायावती ने अपने सगे भतीजे को यह जिम्मेदारी सौंपी है। पार्टी जानकारों का कहना कि अखिलेश यादव, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और दलितों में लोकप्रिय हो रहे चंद्रशेखर युवा चेहरे के तौर पर आते हैं। ऐसे में मायावती ने उनके मुकाबले सबसे युवा चेहरे 28 साल के आकाश को उत्तराधिकारी बनाया है। युवाओं में पकड़ बनाकर वह पार्टी को आगे बढ़ा सकते हैं।
खैर, उत्तराधिकारी बनने के बाद आकाश के सामने कई चुनौतियां भी हैं। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि मायावती जिस तरह कठिन परिस्थितियों से पार्टी को निकालकर लाई थीं, क्या वह ऐसा करिश्मा कर पाएंगे? यह वह दौर है जब बड़े-बड़े दिग्गज देता प्रधानमंत्री मोदी की शख्सियत के सामने पानी भर रहे हैं। जातिवाद की राजनीति उतार पर है। ऐसे में युवाओं को जोड़ने के साथ वरिष्ठों के साथ तालमेल बैठाकर कैसे पार्टी को आगे ले जाएंगे? पार्टी ने उनको लगातार बड़ी जिम्मेदारियां दीं, लेकिन अब तक वह कुछ खास चमत्कार नहीं कर पाए हैं।
लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें देश भर में संगठन की जिम्मेदारी दी गई है। बेहतर नतीजों के जरिए उत्तराधिकार की जिम्मेदारी पर उन्हें खरा उतरना होगा। अगर वे संगठन पर पकड़ बनाने में मजबूत हुए तो उन्हें भी मायावती की तरह बड़ी सफलता मिल सकती है, मगर समस्या यह भी है कि मायावती इस समय अपनी सियासत के बहुत-बुरे दौर से गुजर रही हैं। उनकी दलित सियासत उतार पर है।