बधिरों के मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने होंगे
विश्व बधिर संघ की ओर से प्रतिवर्ष 19 सितम्बर से 25 सितम्बर तक अंतरराष्ट्रीय बधिर
सप्ताह का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन का उद्देश्य बधिरों के सामाजिक, आर्थिक
एवं राजनैतिक अधिकारों के प्रति लोगों को जागरूक करने के साथ ही दुनिया भर में सामान्य
लोगों के बीच बहरे लोगों की समस्याओं के बारे में समझ बढ़ाना है। इस सप्ताह बधिरों के
सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकारों के प्रति लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के साथ-साथ
समाज और देश में उनकी उपयोगिता के बारे में भी बताया जाता है। विश्व की करीब सात अरब आबादी में
बधिरों की संख्या 80 लाख के आस पास है। इस संख्या का 80 फीसदी विकासशील देशों में पाया जाता है।
भारत में बधिरों की संख्या 16 लाख के आसपास है। शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति सहयोग न मिलने पर
सामान्य व्यक्ति से पिछड़ा हुआ महसूस करता है लेकिन सामाजिक, आर्थिक और मानसिक सहयोग प्रदान
कर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है।
सबसे बड़ी समस्या जागरूकता का अभाव है। हमारे यहां व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए आने वाले
अधिकतर बच्चे देश के पिछड़े इलाकों से आते हैं। समाज के पिछड़े तबकों से सम्बंधित इनके अभिभावकों
में जागरूकता एवं सुविधाओं के अभाव के कारण इन बच्चों के पास मूलभूत ज्ञान का अभाव होता है। कान,
नाक एवं गला के चिकित्सक ने कहा, प्रदूषण के कारण धीरे-धीरे बहरापन महामारी का रूप चुका है। कोई
प्रत्यक्ष लक्षण न दिखने के कारण इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। देश में बहरेपन के उपलब्ध
इलाज पर असंतोष जताते हुए कहा, रोगी-चिकित्सक अनुपात अमेरिका में 160 पर और ब्रिटेन में 500 पर
एक का है। जबकि भारत में यह अनुपात सवा लाख पर एक चिकित्सक का बैठता है। सरकारी अस्पतालों में
भी सुविधाओं की कमी है। पिछड़े इलाकों में यह अंतर और भी ज्यादा है। योग्य चिकित्सकों की कमी का
अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कान के आपरेशन के लिए दिल्ली के प्रतिष्ठित भारतीय
आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में 3 महीने की प्रतीक्षा सूची है।
भारत में प्रतिवर्ष 10 लाख ऐसे बच्चे जन्म लेते हैं जिनमें सुनने की क्षमता सामान्य से काफी कम होती है
हालांकि स्क्रीनिंग के जरिये होने वाली बहरेपन की शुरूआती जांच तथा कोक्लर प्रत्यारोपण और थेरेपी से
इस बीमारी को दूर किया जा सकता है। जिन बच्चों में बहरेपन का जन्म के छह से आठ महीने के अंदर पता
चल जाता है उनका इलाज संभव है। उत्तर भारत में केवल सर गंगा राम अस्पताल में ही बहरेपन की
स्क्रीनिंग की सुविधा है। अस्पताल में वर्ष 2007 से ही ये परीक्षण किये जा रहे हैं और अब तक 6000 बच्चों
की स्क्रीनिंग की जा चुकी है। बहरेपन की स्क्रीनिंग के बाद मरीज का कोक्लर इम्प्लांट और थेरेपी के द्वारा
इलाज किया जाता है। इस इलाज के बाद ज्यादातर मरीज सामान्य व्यक्ति की तरह सुन पाने में सक्षम हो
जाते हैं। कोक्लर इम्प्लांट दो तरीके का होता है जिसमें पहले में मरीज को छह से आठ लाख रूपए और दूसरे
तरीके में 10 से 12 लाख रूपए खर्च होते हैं। एक बार कोक्लर इंप्लांट हो जाने के बाद यह अस्सी वर्षो तक
चलता है। एकतरफ जहां स्टेम सेल थेरेपी असफल हो गयी है वहीं कान के अंदरूनी हिस्से में प्रतिरोपित
छोटा इलेक्ट्रानिक उपकरण सुनने में अक्षम उन हजारों बच्चों के लिये उम्मीद बनकर उभरा है जिन्हें सुनने
वाले उपकरणों से मदद नहीं मिल सकती।
बधिरों के लिये बेहतरीन थेरेपी बताते हुए ऑस्ट्रेलिया ने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि ऐसे बच्चों की पहचान
शुरुआत में ही हो जाए। इस थेरेपी से दुनिया भर में दो लाख लोगों को फायदा हुआ है। सर गंगाराम
अस्पताल के कोहलर प्रतिरोपण इकाई का दौरा करने वाले ने कहा, शोध से हमें पता चलता है कि जल्दी
सुनने से बच्चों का मस्तिष्क विकसित होता है जो उन्हें बाकी जिंदगी अपने आसपास की आवाज सुनने में
सक्षम बनाता है। इसलिए बच्चों में जितनी जल्दी सुनने वाले उपकरण लगा दिये जाएं उतना ही अच्छा है।,
कोहलर प्रतिरोपण इकाई में आस्ट्रेलियाई तकनीक भारतीय डाक्टरों को यह पहचानने में मदद कर रहा है
कि कोहलर प्रतिरोपण से किस बच्चे को अन्य उपचार की तुलना में ज्यादा फायदा होगा।