Dark Mode
यूपी में भाजपा के खिलाफ वन टु वन फॉर्मूला धराशाही

यूपी में भाजपा के खिलाफ वन टु वन फॉर्मूला धराशाही

बसपा सुप्रीमो मायावती ने कांग्रेस के प्रयासों को दरकिनार करते हुए आगामी लोकसभा चुनाव
अकेले लड़ने का ऐलान किया है। इससे अस्सी सीटों वाले यूपी में भाजपा के खिलाफ वन इज टु
वन का चुनावी फार्मूला धराशाही हो गया है। मायावती की अकेले चलो की घोषणा से इंडिया
गठबंधन को बड़ा धक्का लगा है साथ ही विपक्ष को एक करने की मुहीम को बसपा सुप्रीमों ने
पलीता लगा दिया है। अपने जन्मदिवस पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने सपा प्रमुख
अखिलेश यादव को गिरगिट की संज्ञा देते हुए कहा गठबंधन से फायदा कम नुकसान ज्यादा
होता है। उन्होंने भाजपा की फ्री राशन स्कीम पर करारा प्रहार किया और कहा हम सभी पार्टियों
से दूरी बनाकर रखेंगे। हालांकि चुनाव के बाद सरकार में शामिल हो सकते हैं। राजनीतिक
विश्लेषकों ने मायावती के ऐलान को आत्मघाती बताते हुए कहा इससे बसपा में फूट पड़ेगी,
इसका संकेत लोकसभा में बसपा के नेता श्यामवीर सिंह यादव की इस प्रतिक्रिया से मिलता है
जिसमें इंडिया गठबंधन में शामिल न होने पर निराशा व्यक्त की। इससे पूर्व सपा प्रमुख
अखिलेश यादव ने बसपा के इंडिया गठबंधन में शामिल होने का विरोध किया था। कभी यूपी में
30 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली बसपा अब 13 प्रतिशत पर पहुँच गई है। कुछ लोगों का
यह भी कहना है कि मायावती के इस कदम से चुनावों में अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को फायदा
होगा।
लोकसभा चुनाव में अब कुछ ही महीने रहे है, ऐसे में मायावती ने अपने पार्टी संगठन को सुदृढ़
बनाने की दिशा में काम शुरू कर दिया है। बसपा के मौजूदा सांसद मायावती के अकेले चलो की
घोषणा से बेचैन है। यूपी सहित देशभर में बसपा के वोट बैंक में लगातार गिरावट आई है।
मायावती की पार्टी का यूपी सहित देश के कई राज्यों में जनाधार है। हालाँकि यूपी में बसपा की
कमजोर स्थिति किसी से छिपी नहीं है। मायावती इस समय एकला चलो की राह पर है। विपक्ष
में होते हुए भी वह विपक्षी गठबंधन इंडिया में शामिल नहीं होने का एलान हैरान करने वाला है।
देश के उत्तर भारत में बसपा दलितों पर कुछ हद तक अपना प्रभाव रखती है। विशेषकर यूपी में
दलितों के एक वर्ग विशेष सहित अल्पसंख्यक मतदाता मायावती को अपना नेता स्वीकार करते
है। मगर पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बसपा का आधार घटा है। विधान सभा में
बसपा का सूपड़ा साफ़ हो गया। मायावती ने उनकी पार्टी के सम्बन्ध में सपा नेताओं की

टिप्पणियों पर नाराजगी व्यक्त करते हुए साफ़ किया की राजनीति में कब किसको किसकी
जरुरत पड जाये यह याद रखना चाहिए ताकि बाद में शर्मिंदा न होना पड़े।
वह भी एक समय था जब मायावती का समर्थन पाने के लिए लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों
में होड़ मची थी। भाजपा हो या समाजवादी पार्टी अथवा कांग्रेस मायावती का समर्थन पाने के
लिए सभी बेचैन रहते थे। उस दौरान बहनजी किसी को भाव नहीं देती थी। यदि किसी को
समर्थन देती तो अपनी शर्तों पर। उनके दरवाज़े पर विभिन्न विचारधारा वाले नेताओं की क़तार
देखी जा सकती थी। यूपी विधानसभा चुनाव में बहनजी की पार्टी का भट्टा बैठ गया था और
उनके अस्तित्व पर सवालिया चिन्ह लगने लगे थे। मायावती की पार्टी कोई आंदोलनकारी पार्टी
नहीं है। इस पार्टी को कभी किसी मुद्दे पर धरना प्रदर्शन करते नहीं देखा गया। बसपा केवल
बयानों तक सीमित रहती है। बसपा की पहचान केवल जातीय पार्टी की है। मुस्लिमों के साथ
साथ दलित भी उनकी पार्टी से अलग हो गए है। मुस्लिमों का झुकाव सपा की तरफ और दलित
भाजपा की झोली में चले गए है।
गौरतलब है यूपी विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती एक बारगी
सियासत के नेपथ्य में चली गयी थी। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती
ने 2007 के विधानसभा चुनाव में जब अपने दम पर सरकार बनाई, तो उनको राष्ट्रीय मंच पर
दलित राजनीति के सिरमौर के रूप में देखा गया था । लोग यहाँ तक कहने लगे थे मायावती
एक दिन देश की प्रधानमंत्री बनने में कामयाब हो सकती हैं। लेकिन यूपी में 2012 के चुनाव
के बाद से लगातार खराब प्रदर्शन करने वाली बसपा का बुरा दौर जारी है। मायावती की हार को
दलित राजनीति की धार कमज़ोर होने के तौर पर भी देखा जा रहा है। गत यूपी चुनाव में बसपा
सिर्फ एक सीट पर सिमट गई है और दलित और मुस्लिम गठजोड़ तिनके की तरह बिखर गया।

-बाल मुकुन्द ओझा

Comment / Reply From

Newsletter

Subscribe to our mailing list to get the new updates!