
निर्दोष बच्ची की चीखों पर सहानुभूति का बोझ
एक चार साल की मासूम बच्ची, जिसकी आंखों में मां की गोद का प्यार और सपनों की मासूमियत चमक रही थी, अचानक एक ऐसे नरक में धकेल दी गई जहां इंसानियत की हर सांस थम गई। अक्टूबर 2022 में खंडवा जिले में उस छोटी सी जान के साथ जो हुआ, वह केवल एक अपराध नहीं, बल्कि मानवता के चेहरे पर एक ऐसा काला धब्बा है जो शायद कभी मिट नहीं सकेगा। उसकी हंसी, उसका गुनगुनाना, उसका भोला-भाला बचपन—सब कुछ एक जघन्य कृत्य ने रौंद दिया। डीएनए रिपोर्ट, मेडिकल साक्ष्य, गवाहों के बयान—सब कुछ साफ था, जैसे आकाश से सच बरस रहा हो। ट्रायल कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाकर इंसाफ की उम्मीद जगा दी, लेकिन उच्च न्यायालय ने एक ऐसा फैसला सुनाया कि हर संवेदनशील हृदय रो पड़ा। आरोपी के निरक्षर, आदिवासी, और पारिवारिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर फांसी की सजा को 25 साल की कैद में बदल दिया गया। यह इंसाफ नहीं, एक मासूम के आंसुओं पर थोपा गया एक और जख्म है, जो समाज की चुप्पी और कमजोरी को चीख-चीखकर बयान करता है!
क्या गरीबी और अशिक्षा ने कानून की रीढ़ तोड़ दी? क्या एक बच्ची के साथ हुए इस घिनौने अपराध को 'समझने' की गुंजाइश बनाया जा सकता है? यह फैसला केवल एक कानूनी निर्णय नहीं, बल्कि समाज की नैतिकता पर एक जोरदार प्रहार है। आज निरक्षर, आदिवासी होने और पारिवारिक पृष्ठभूमि का बहाना बनाकर राहत दी गई, कल कोई मानसिक दबाव का तर्क देगा, परसों कोई शिक्षा या सुधार की संभावना का हवाला पेश करेगा। फिर सवाल उठता है—न्याय का तराजू क्या तौलेगा? अपराध की गहराई को, या अपराधी की जाति, गरीबी और सामाजिक पृष्ठभूमि को? क्या हम उस मोड़ पर पहुंच गए हैं जहां मासूमों का दर्द गौण हो गया और अपराधी की पहचान सर्वोपरि हो गई? यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि 'बेटी पढ़ाओ-बचाओ' के नारे गली-गली गूंजते हैं, लेकिन जब वही बेटी जिंदगी की सबसे बड़ी त्रासदी से गुजरती है, तो उसके गुनहगार को 'सिस्टम का शिकार' कहकर बख्श दिया जाता है। लेकिन क्या वह मासूम बच्ची सिस्टम का हिस्सा नहीं थी? उसकी निर्धनता, उसकी लाचारी, उसका छीना गया बचपन—क्या इन पर कोई दया नहीं बरसनी चाहिए?
यह फैसला समाज के उस सपने को तोड़ता है, जहां इंसाफ अंधा होता है—न जाति देखता है, न धर्म, न गरीबी। लेकिन यहां तो इंसाफ की आंखों पर बंधी पट्टी खुल गई और उसने अपराधी के वर्ग को देख लिया। यह एक खतरनाक संकेत है, जो भविष्य में और भी भयावह परिणाम ला सकता है। अगर आज निरक्षर और एक आदिवासी होने के कारण सजा हल्की हो सकती है, तो कल कोई और बहाना—चाहे वह मानसिक अस्थिरता हो या सामाजिक दबाव—न्याय को कमजोर कर सकता है। क्या अपराध का मूल्यांकन अब साक्ष्यों और अपराध की गंभीरता से नहीं, बल्कि अपराधी की सामाजिक स्थिति से होगा? यह सोचकर दिल दहल जाता है कि एक मासूम के साथ हुए जुल्म को हल्का करने की कोशिश समाज की उस संवेदना को कुचल देती है, जो पीड़ित के साथ खड़ी होनी चाहिए।
उस मासूम के माता-पिता की जिंदगी अब दर्द और अविश्वास के अंधेरे में डूबी हुई है। वह बच्ची, जो कभी मां की गोद में गुनगुनाया करती थी, अब शायद ही बोल पाएगी। उसके सपनों की जगह डर ने ले ली है, उसकी हंसी चीख में बदल गई है। उनके लिए कानून पर भरोसा अब एक सपना बनकर रह गया है। क्या यह वही समाज है जो अपनी बेटियों को सुरक्षित माहौल देने का दावा करता है? क्या यह वही राष्ट्र है जो अपनी मासूमियत की रक्षा का वचन देता है? नहीं, यह एक ऐसा दर्पण है जो समाज की सच्चाई को बेनकाब करता है—जहां इंसाफ की जगह सहानुभति की तस्करी हो रही है।
यह फैसला केवल एक बच्ची के परिवार को ही नहीं, बल्कि पूरे समाज को प्रभावित करता है। जब पीड़ितों को न्याय नहीं मिलता, तो वे उम्मीद खो देते हैं। और जब उम्मीद मरती है, तो समाज का ढांचा चरमराने लगता है। आज अगर हम चुप रहे, तो कल हमारी बेटियां भी इसी डर और असुरक्षा में जीएंगी। 'बेटी पढ़ाओ-बचाओ' के नारे तभी सार्थक होंगे, जब इंसाफ की तलवार बिना डरे उठेगी—चाहे अपराधी कोई भी हो, साक्षर हो या निरक्षर, उसकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो। जरूरत है ऐसे न्याय की, जो अपराध की गहराई को देखे, साक्ष्यों पर भरोसा करे, और सहानुभति के नाम पर अन्याय को बढ़ावा न दे।
समाज को यह समझना होगा कि अपराध की दुनिया में कोई वर्ग नहीं होता, कोई जाति नहीं होती—होता है तो केवल एक पीड़ित और एक अपराधी। और जब न्याय इन दोनों के बीच खड़ा होता है, तो उसे आंख मूंदकर केवल सत्य पर चलना चाहिए, न कि सामाजिक दबाव या राजनीतिक चालों के आगे झुकना चाहिए। आज अगर हमने इस मासूम की चीख को अनसुना किया, तो कल हमारी अपनी बेटियों की पुकार भी दम तोड़ जाएगी। यह एक चेतावनी है, एक करारा जवाब मांगती है—क्या हम अपने बच्चों को वह भरोसा दे पाएंगे कि यह दुनिया उनके लिए सुरक्षित है?
अगर हम अभी नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें कोसेंगी। इंसाफ को कमजोर करना मतलब है अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता को कमजोर करना। यह फैसला एक मासूम के दिल को चीर गया, लेकिन अगर हमने इसे ठीक करने की कोशिश नहीं की, तो यह पूरे समाज के दिल पर एक ऐसा घाव बन जाएगा, जो कभी भर नहीं सकेगा। आज का मौन कल का पाप बनेगा, और वह दिन दूर नहीं जब हम अपनी आंखों से आंसुओं के सिवा कुछ नहीं देख पाएंगे—एक ऐसी दुनिया में, जहां मासूमों का खून हमारे हाथों पर सुखेगा, और इंसाफ की पुकार अनंत में खो जाएगी।