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इंडिया गठबंधन में जब तक सीट शेयरिंग नहीं हो जाती तब तक सब बेकार है

इंडिया गठबंधन में जब तक सीट शेयरिंग नहीं हो जाती तब तक सब बेकार है

हाल ही में कांग्रेस की पुनगर्ठित कार्य समिति की हैदराबाद में पहली बैठक हुई, जिसमें इस वर्ष होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और अगले साल के लोकसभा चुनाव के लिए रणनीति पर मंथन किया गया। इस दौरान कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं ने राय दी कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस ‘ के घटक दलों के साथ लोकसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे पर नवंबर के बाद ही चर्चा शुरू की जाए। कांग्रेस के इन नेताओं का तर्क है कि विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस और मजबूत होगी, जिससे वह सीट बंटवारे को लेकर सहयोगी दलों पर दबाव बना सकेगी।

दरअसल इंडिया गठबंधन के सहयोगी दल जल्द से जल्द लोकसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे पर चर्चा चाहते हैं ताकि कांग्रेस से आज के हालात के मद्देनजर ज्यादा सीट हासिल कर सकें। वहीं कांग्रेस नेताओं को उम्मीद है कि विधानसभा चुनाव के बाद उसकी ताकत बढ़ेगी और उसके बाद वह सहयोगी दलों के साथ सीट बंटवारे को लेकर मजबूती से मोलभाव कर सकेगी। ये नेता चाहते हैं कि सीट बंटवारे को लेकर बातचीत भले चले, लेकिन आखिरी फैसला विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हो।

वहीं कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी नेता अजय माकन ने दिल्ली और पंजाब की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन पर ऐतराज जताया है। कांग्रेस कार्यसमिति के घटनाक्रम से वाकिफ सूत्र ने यह जानकारी दी है। इस सूत्र के मुताबिक अजय माकन ने बैठक में सवाल उठाया, ‘अगर आप पार्टी को कांग्रेस से गठजोड़ करना है तो वह उन राज्यों में क्यों प्रचार कर रही है, जहां कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला है?’अजय माकन ने इसके साथ ही कहा कि ‘अगर आप अपनी रणनीति बदलती है तभी दिल्ली कांग्रेस को रणनीति बदलने पर सोचना चाहिए, वरना इस गठबंधन का पार्टी को कोई फायदा नहीं होगा।’

दरअसल गठबंधन में शामिल सभी पार्टियां महत्वाकांक्षा को त्यागने के दावे तो बहुत करती हैं पर वास्तव में कोई तैयार नहीं होता है। आप नेता राघव चड्ढा कहते हैं कि गठबंधन को सफल बनाने के लिए इसमें शामिल प्रत्येक राजनीतिक दल को तीन चीजों का त्याग करना होगा- महत्वाकांक्षा, मतभेद और मनभेद। पर हरियाणा- दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की बढ़ती राजनीतिक इच्छाएं मुश्किल का सबब बन रही हैं। दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी कोई भी अपना हित छोड़ने को तैयार नहीं है। दिल्ली-पंजाब और हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की राज्य इकाइयां खुलकर आमने-सामने हैं। आइये देखते हैं कि किस तरह कांग्रेस की राज्य इकाइयों ने अचानक सीटों की डिमांड बढा दी हैं, जिसके चलते राज्यों में गठबंधन के लिए मुश्किलें खड़ी हो गई है ।

पंजाब में कांग्रेस की राज्य इकाई ने बहुत पहले स्व ताल ठोंकी हुई है।पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वडिंग और विधानसभा में विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा आम आदमी पार्टी से गठबंधन के ही खिलाफ हैं। अमरिंदर सिंह राजा वडिंग ने पार्टी को क्लियर संदेश दिया है कि स्टेट यूनिट की राय लिए बिना कोई फैसला नहीं लिया जाए। उधर ऐसे ही तेवर आम आदमी पार्टी की ओर से भी है। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान कहते रहे हैं कि आम आदमी पार्टी अकेले लड़ना और जीतना, अकेले सरकार बनाना और चलाना जानती है। आम आदमी पार्टी के नेताओं के बयान आते रहे हैं कि वो पंजाब की सभी 13 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी।दरअसल पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 42.3 फीसदी वोट के साथ 92 सीटें हासिल हुई थीं।कांग्रेस को 23.1 फीसदी वोट के साथ 18 सीटें मिली थीं।विधानसभा चुनाव में इतने बड़े अंतर के चलते आम आदमी पार्टी कांग्रेस को तवज्जो नहीं देना चाहती तो दूसरी ओर कांग्रेस लोकसभा चुनाव 2019 को आधार मान कर अधिक सीटें चाहती हैं।2019 के चुनाव में कांग्रेस ने 40।6 फीसदी वोट शेयर के साथ आठ सीटें जीती थी। आम आदमी पार्टी को तब 7.5 फीसदी वोट ही मिले थे और केवल एक सीट जीत सकी थी।

दिल्ली में भी कांग्रेस की इकाई शुरू से गठबंधन का विरोध कर रही है।संदीप दीक्षित और अजय माकन आम आदमी पार्टी के विपक्षी गठबंधन में शामिल होने का पहले से ही विरोध करते रहे हैं।इस बीच कांग्रेस नेता अलका लांबा ने दिल्ली में सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर अपनी महत्वाकांक्षा पिछले महीने ही दिखा दी थी। हालांकि बाद में कांग्रेस की बैठक में अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी के साथ शामिल रहे दीपक बाबरिया ने अलका लांबा के बयान का खंडन करते हुए कहा कि ऐसी कोई चर्चा नहीं हुई। दिल्ली में कांग्रेस के नेताओं का आम आदमी पार्टी को एक भी लोकसभा सीट न देने की बात करना दिल्ली कांग्रेस की अति महत्वाकांक्षा भी नहीं कहा जा सकता।दिल्ली में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस खाता नहीं खोल सकी थी पर लोकसभा चुनाव में सात में से पांच पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर थी।जबकि आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार दो सीटों कांग्रेस वोट शेयर के मामले में भी आम आदमी पार्टी से आगे थी। कांग्रेस का वोट शेयर 22.6 फीसदी रहा था जबकि आम आदमी पार्टी को 18.2 फीसदी वोट मिले थे।दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन का पेच बस सीट बंटवारे का नहीं बल्कि सियासत का आधार बचाने का भी है।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पिछली हालत बहुत पतली रही है । पिछले लोकसभा चुनाव 2019 और विधानसभा चुनावों 2022 में सोनिया गांधी को छोड़कर उसका कोई प्रत्याशी जीत का स्वाद नहीं चख सका है। पर पार्टी को कम से कम 18 से 20 सीट चाहिए। पार्टी को अनुमान है कि 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने जिन सीटों पर जीत दर्ज की उनमें से अधिकतर इस बार वो जीत सकती है। 2009 के चुनावों में जिन सीटों पर कांग्रेस को विजय मिली थी वो हैं अकबरपुर, अमेठी, रायबरेली, बहराइच, बाराबंकी, बरेली, धौरहरा, डुमरियागंज, फैजाबाद, फर्रुखाबाद, गोंडा, झांसी, कानपुर, खीरी, कुशीनगर, महाराजगंज मुरादाबाद, प्रतापगढ़, श्रावस्ती, सुल्तानपुर और उन्नाव। पर इन 14 सालों में बहुत कुछ बदल चुका है। भारतीय जनता पार्टी ही नहीं कई छोटे दल भी कांग्रेस के मुकाबले बहुत मजबूत हो चुके हैं। समाजवादी पार्टी भी कांग्रेस को इतनी ज्यादा सीट देकर अपनी राजनीति नहीं खत्म करना चाहेगी।इसके साथ ही कांग्रेस की इच्छा चंद्रशेखर रावण और आरएलडी को भी साथ लाने की है। अब देखना यह है कि यहां कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में कौन कुर्बानी देने के लिए आगे आता है।

यदि बात करें बिहार की तो इंडिया गठबंधन की चिनगारी बिहार से ही उठी है।बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं। अभी तक लग रहा था सीटों के बंटवारे को लेकर आम सहमति आसानी से बन जाएगी।पर कांग्रेस की महत्वाकांक्षा यहां भी काम बिगाड़ सकती है। बिहार प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह कहते हैं कि प्रदेश में हमारी स्थिति मजबूत है। पिछले लोकसभा चुनावों में विपक्ष से अगर कोई प्रत्याशी जीता था वह कांग्रेस का था।कांग्रेस की ओर से कम से कम 9 सीटों की मांग की जा रही है। लालू और नीतीश की महत्वाकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं हैं।वाम दलों को भी कुछ सीट चाहिए ही। महागठबंधन में शामिल छोटी पार्टियां भी अगर डिमांड करती हैं तो गठबंधन के टूटने का खतरा बना रहेगा।सीपीआईएमएल महागठबंधन की चौथी सबसे बड़ी पार्टी है।सात सीट की दावेदारी इधर से भी है। सीपीआई भी 3 सीटों की डिमांड कर रही है।

महाराष्ट्र में भी भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस अपने को एनसीपी और शिवसेना (यूटी) के बराबर का समझने लगी है। कांग्रेस का तर्क है कि एनसीपी और शिवसेना का बड़ा हिस्सा टूट कर भाजपा की ओर जा चुका है। कांग्रेस को लग रहा है कि यही मौका है जब राज्य में वह अपनी खोई ज़मीन वापस पा सकती है।दरअसल कांग्रेस का सोचना यहां तो सही है पर शरद पवार और उद्धव ठाकरे कभी अपने को टूटे हुए गुट का नेता नहीं समझे अभी तक।और ये लोग कांग्रेस को बराबर सीट देंगे यह उम्मीद नहीं लगती। 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस मुश्किल से एक सीट जीत सकी थी। एनसीपी ने भी चार सीटें ही जीती थीं। उस समय शिवसेना ने राज्य की 18 सीटें जीती थीं।

सीट शेयरिंग का मुद्दा सबसे मुश्किल बंगाल में होने वाला है। कांग्रेस नेता अधीर रंजन ममता बनर्जी पर कोई न कोई कमेंट करते रहते हैं। उपचुनाव में भी पार्टियां एक मत नहीं हो सकीं। दूसरी ओर ममता और लेफ्ट किसी कीमत पर साथ आने को तैयार नहीं हैं। उपचुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले में टीएमसी ने जीत दर्ज कर अपनी ताकत दिखा दी है। कांग्रेस और लेफ्ट उम्मीदवार मिलकर भी टीएमसी के सामने फुस्स साबित हुए हैं। ऐसे में बंगाल के लिए फॉर्मूला निकालना एक बड़ी चुनौती है।पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ टीएमसी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 42 संसदीय सीटों में से 22 पर कामयाबी हासिल की थी। भाजपा को 18 तो कांग्रेस को दो सीटों पर संतोष करना पड़ा था।2014 के चुनावों में जब भाजपा बहुत कमजोर पोजिशन में थी, कांग्रेस केवल 4 सीटें ही जीत सकी थी जबकि टीएमसी ने 34 सीटें जीती थीं।

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