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बंगाल में चुनावी हिंसा केवल आज ही नहीं, इस हिंसा का पुराना है इतिहास

बंगाल में चुनावी हिंसा केवल आज ही नहीं, इस हिंसा का पुराना है इतिहास

पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान हिंसा की खबरें लगातार सामने आ रही हैं। छठे चरण के दौरान पूर्वी मिदनापुर के तामलुक में टीएमसी के एक कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई है। हत्या के बाद उसके शव को तालाब में फेंक दिया गया। टीएमसी ने इसका आरोपभाजपा पर लगाया है। मृतक का नाम शेख माइबुल बताया गया है।जानकारी के मुताबिक टीएमसी कार्यकर्ता शुक्रवार रात करीब 11 बजे बाइक से घर लौट रहा था। रास्ते में ही उस पर कई लोगों ने हमला कर दिया। धारदार हथियार से उसकी हत्या के बाद उसे तालाब में फेंक दिया गया। सुबह जब लोग तालाब के बाद पहुंचे को इसकी जानकारी मिली। पुलिस उसे लेकर डॉक्टर के पास पहुंची लेकिन डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।

इससे पहले भी पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा के कई मामले सामने आ चुके हैं। पिछले दिनों 22 मई को नंदीग्राम में भाजपा की एक महिला कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई। इसका आरोप टीएमसी पर लगा था। हत्या के विरोध में जगह-जगह आगजनी और तोड़फोड़ की गई थी और भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा था। हालिया घटनाक्रमों की वजह से नंदीग्राम में वोटिंग से ठीक पहले काफी तनाव पसर गया था।भाजपा कार्यकर्ताओं पर हुए हमले की घटना में 7 कार्यकर्ता घायल भी हुए थे।

दरअसल देखा जाय तो पश्चिम बंगाल में हिंसा और राजनीति एक दूसरे के पूरक हैं। जब भी पश्चिम बंगाल में राजनीति की बात होती है तो पहले वहां की सियासी हिंसा की चर्चा होती है। देश के करीब-करीब हर राज्य में चुनाव के दौरान हिंसा की छिटपुट घटनाएं होती हैं। यानी सभी राज्यों में हिंसा चुनावी होती है। वहीं, पश्चिम बंगाल में हिंसा का नाता चुनाव से नहीं राजनीति से हो गया है। पश्चिम बंगाल में दशकों से राजनीतिक हिंसा आम बात है।

आजादी के बाद से बंगाल ने कई राजनीतिक दलों के नेतृत्व वाली सरकारें देखी हैं। जिनमें दो दशकों से अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस और तीन दशकों से अधिक समय तक शासन करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा शामिल हैं। ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) मौजूदा सरकार का नेतृत्व करती है। इन सभी शासनों में, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, हिंसक झड़पों की संस्कृति पिछले कुछ वर्षों में ही पनपी है। इन घटनाओं ने पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा को सुखियों में दिया है।

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की शुरुआत नक्सल आंदोलन के साथ हुई। 1960 से 1970 के बीच शुरू हुई नक्सली हिंसा धीरे-धीरे राजनीतिक हिंसा में बदल गई। एक सरकारी आंकड़े की मानें तो इन पांच दशकों में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा में करीब 30 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। लेकिन सूबे में राजनीतिक हिंसा का दौर आज भी जारी है। पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा मौत सिंगुर और नंदीग्राम आंदोलन में हुईं। राजनीतिक जानकार इस बात से भी डरे हुए थे कि जैसे-जैसे राज्य में आम चुनाव होंगे राजनीतिक हिंसा में बढोतरी होगी।

पश्चिम बंगाल में हिंसा का दौर 1960 के बाद शुरू हुआ। उसके बाद 1967 में राज्य में लेफ्ट पार्टी की सरकार आई जो 2011 तक यानी 34 साल तक रही। एक आंकड़े के मुताबिक इन 34 वर्षों के दौरान राज्य में राजनीतिक हिंसा में 28 हजार लोग मारे गए। ममता बनर्जी के नेतृत्व में हुए नंदीग्राम और सिंगुर आंदोलन को पश्चिम बंगाल की सरकार ने जिस हिंसात्मक तरीके से दबाया वो ताबूत में आखिरी कील साबित हुई और 34 साल की लेफ्ट सरकार का पतन हुआ। लोगों को उम्मीद जगी कि अब सरकार बदलने के बाद पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा खत्म हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पंचायत चुनाव हो या विधानसभा-लोकसभा चुनाव, पश्चिम बंगाल में हिंसा कम नहीं हुई। अब तो बिना किसी चुनाव के भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर हमला आम बात हो गई है।

बताया जाता है कि चुनावी मौसम के दौरान राजनीतिक हिंसा अब इस हद तक बढ़ गई है कि कई सरकारी कर्मचारियों ने ऐसे कर्तव्यों से जुड़े जोखिमों के कारण चुनाव कर्तव्यों से बचने के लिए स्वयं नामांकन दाखिल करना शुरू कर दिया है। हिंसा का केंद्र रहे बीरभूम जिले में, कई ब्लॉकों में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों से अधिक है। तृणमूल कांग्रेस के एक स्थानीय नेता बताते हैं, ''करीबी लड़ाई वाले चुनाव में एक या दो वोट खराब होने से नतीजा बदल सकता है। हम समझना चाहते थे कि वे चुनाव क्यों लड़ रहे हैं। हमें पता चला कि सभी निर्दलीय उम्मीदवार स्कूल शिक्षक हैं। उन्होंने हमें बताया कि चूंकि वे मतदान कर्मी नहीं बनना चाहते, इसलिए उन्होंने पर्चा दाखिल किया है। वे न तो प्रचार करेंगे और न ही वोट मांगेंगे।”

स्कूल शिक्षक राजकुमार रॉय, जिन्हें उत्तर दिनाजपुर जिले में पिछले पंचायत चुनावों में पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया गया था, पूरी मतदान प्रक्रिया के दौरान सुरक्षा चिंताओं और अनियमितताओं के बारे में मुखर रहे थे। मतदान समाप्त होने के तुरंत बाद वह लापता हो गये। बाद में उनका शव रायगंज के सोनाडिंगी में पाया गया, जो इटाहार ब्लॉक में उनके निर्धारित पद से लगभग 20 किमी दूर था। जबकि पुलिस ने शुरू में इसे आत्महत्या के मामले के रूप में वर्गीकृत किया था, स्थानीय लोगों ने न्याय की मांग करते हुए आरोप लगाया कि उसका अपहरण कर हत्या कर दी गई थी।

राजकुमार की पत्नी अर्पिता ने स्थानीय पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई थी और बाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। मामला अभी भी चल रहा है।

आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के एक पेपर के मुताबिक लोकतंत्र और हिंसा का सहजीवी संबंध है। यहां तक कि दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्र भी इस तरह के गहरे संबंध को खत्म करने में असमर्थ रहे हैं। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक के उत्तरार्ध और 2000 के दशक के बीच, ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड, इटली और जर्मनी जैसे पश्चिमी यूरोप के देशों में वामपंथी और दक्षिणपंथी चरमपंथी समूहों की ओर से राजनीतिक हिंसा का विस्फोट देखा गया। हाल के वर्षों में, दुनिया ने यूनाइटेड किंगडम (यूके) में ब्रेक्सिट मुद्दे, संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) में ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन और 2020 के अमेरिकी चुनावों पर राजनीतिक हिंसा की घटनाएं देखीं। हालांकि, कोई यह कह सकता है कि अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों में राजनीतिक हिंसा अधिक आम है।

बंगाल में लेफ्ट के 34 साल और ममता बनर्जी के 13 साल के कार्यकाल में राजनीतिक हिंसा की तस्वीर बदलती नजर नहीं आई। ऐसे में लोगों की उम्मीद अब किसी तीसरे विकल्प पर है। यह विकल्प 2026 के विधानसभा चुनावों में तय होगा। साफ है कि पश्चिम बंगाल की जनता के सामने लेफ्ट और कांग्रेस, टीएमसी और भाजपा तीन विकल्प होगें। जिनमें कांग्रेस, लेफ्ट और टीएमसी का विकल्प वहां की जनता पहले ही आजमा चुकी है। ऐसे में भाजपा अपने आप को राज्य में मजबूत विकल्प के रूप में देख रही है। शायद इसीलिए भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है।

-अशोक भाटिया

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